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________________ [160] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन अर्थावग्रह के छह प्रकार 1. श्रोत्रेन्द्रिय अर्थावग्रह 2. चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह 3. घ्राणेन्द्रिय अर्थावग्रह, 4. जिह्वेन्द्रिय अर्थावग्रह 5. स्पर्शनेन्द्रिय अर्थावग्रह तथा 6. अनिन्द्रिय अर्थावग्रह 282 इस प्रकार अर्थावग्रह के छह प्रकार होते हैं, क्योंकि यह सभी इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रियों और मन) से होता है। अप्राप्यकारी चक्षु एवं मन से भी अर्थावग्रह होता है, यह तात्पर्य है। व्यंजनावग्रह चक्षु और मन से नहीं होता है तथा अर्थावग्रह सभी इन्द्रियों से होता है। चक्षुरिन्द्रिय का अर्थावग्रह - पूर्वपक्ष - जिस प्रकार चक्षुरिन्द्रिय और मन का व्यंजनावग्रह नहीं होता है, वैसे अर्थावग्रह भी नहीं होना चाहिए था? उत्तरपक्ष - पूज्यपाद आदि के द्वारा दिये गये उदाहरण के अनुसार कोई मनुष्य दूर रहे हए बादल को देखता है तब उसके विषय और विषयी का संनिपात हो ने पर उसको प्रथम दर्शन होता है और बाद में 'यह शुक्ल रूप है' ऐसा जो बोध होता है वह चक्षुरिन्द्रिय अर्थावग्रह है। मन के अर्थावग्रह के सम्बन्ध में मलयिगिर कहते हैं कि जीव के मनन का व्यापार भावमन है, जबकि मनोयोग्य परिणत द्रव्य द्रव्यमन है। ज्ञान पर्याय में भाव मन ही अभिप्रेत है, भावमन से द्रव्य मन का अपने आप ग्रहण हो जाता है 784 उपकरणेन्द्रिय की सहायता के बिना घटादि अर्थ का अनिर्देश्य चिंतनबोध मन का अर्थावग्रह है। विशेषावश्यकभाष्य में अर्थावग्रह के स्वरूप के सम्बन्ध में प्राप्त मतान्तर और उनका निराकरण - प्रथम मतान्तर - कतिपय आचार्य नंदीसूत्र के 'तेणं सद्दे त्ति उग्गहिए' इस पाठ के आधार पर अवग्रह में विशेष ग्रहण को स्वीकार करते हैं। जिनभद्रगणि का समाधान - जिनभद्रगणि कहते हैं कि जब शब्दादि द्रव्य का प्रमाण प्रकृष्टता को प्राप्त करले और जब इन्दिय उन शब्दादि से पूरित हो जाए और दोनों (द्रव्य और इन्द्रिय) का परस्पर सम्यक् सम्बन्ध हो जाए तब जीव हुंकार भरता है' इस प्रकार अर्थावग्रह तो एक समय की स्थिति वाला और इससे पूर्व शब्द द्रव्य के प्रवेशादि का अन्तर्मुहूर्तकाल तक होगा व्यंजनावग्रह है। इस प्रकार एक समयवर्ती अर्थावग्रह में गृहीत वस्तु का स्वरूप सामान्य, अनिर्देश्य, नाम, जाति आदि की कल्पना से रहित होता है, विशेष रूप से नहीं। इसका कारण यह है कि यदि अर्थावग्रह में विशेष ज्ञान सहित शब्द ग्रहण करना मानते हैं तो वह अर्थावग्रह रूप नहीं होकर अवाय रूप हो जाएगा 285 यदि ऐसा स्वीकार किया जाये कि प्रथम समय में ही 'यह शब्द है' ऐसा ज्ञान अवग्रह रूप है, क्योंकि यह सामान्य ज्ञान है तो जिनभद्रगणि इसका प्रत्युत्तर देते हुए कहते हैं शब्दबुद्धि मात्र ज्ञान के निश्चयात्मक होने से 'अवाय' ज्ञान है। यह शब्द है', 'अशब्द नहीं है क्योंकि वह रूपादि नहीं है, अतः ऐसा ज्ञान 'विशेष ज्ञान' है जो कि अपाय रूप है और ऐसा मानने से अवग्रह के लोप का प्रसंग उपस्थित होता है। यदि अल्प विशेष का ग्रहण होता है, तो वह अपाय रूप नहीं हो कर अवग्रह रूप ही होता है। यह भी उचित नहीं है, क्योंकि अल्प विशेषग्राही होने से अल्प ही है। अतः वह अपाय 282. पारसमुनि, नंदीसूत्र, पृ. 183 283. सर्वार्थसिद्धि 1.15, राजावार्तिक 1.15.1,13 284. नंदीचूर्णि पृ. 41, हारिभद्रीय पृ. 48, राजवार्तिक 1.15.3, धवला पु. 13, सू. 5.5.23, पृ. 218, प्रमाणमीमांस 1.1.25, मलयिगिरि पृ. 168, जैनतर्कभाषा पृ.5 285. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 251-253
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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