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________________ तृतीय अध्याय विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [161] नहीं होगा तो उत्तरोत्तर विशेषग्राही ज्ञानों के भी उनके उत्तरोत्तर भेदों की अपेक्षा से अल्प ( स्तोक) होने से, उनमें अपाय का अभाव हो जाएंगा तथा ईहा के बिना अवाय नहीं हो सकता है, अवग्रह के बिना ईहा नहीं हो सकती है, अतः 'सामान्य' का ग्रहण काल होना चाहिए और वह काल अर्थावग्रह से पूर्व का होना चाहिए। लेकिन उस सामान्य ग्रहण काल से पहले व्यंजनकाल होता है, जो कि सामान्य और विशेष से रहित होता है। अतः आपको सामान्य ग्रहण काल रूप अर्थावग्रह को स्वीकार करना ही होगा। क्योंकि सामान्य के ग्रहण होने पर ही विशेष का ग्रहण होता है 287 जिनभद्रगणि कहते हैं कि एक समयवर्ती अर्थावग्रह के काल में 'शब्द' यह विशेषण उपयुक्त नहीं है, क्योंकि शब्द निश्चय का काल अन्तर्मुहूर्त्त माना गया है। व्यंजनावग्रह में होने वाला ज्ञान अव्यक्त रूप होता है और अव्यक्त ज्ञान में 'यह शब्द है' ऐसा निश्चयात्मक ज्ञान संभव नहीं है। अर्थावग्रह में ऐसे अव्यक्त विषयों का ग्रहण ही इष्ट है तथा अर्थावग्रह में तो अव्यक्त (अस्पष्ट) शब्द का श्रवण होना ही सूत्र में कहा गया है । अव्यक्त वस्तु सामान्य रूप ही होती है और निराकार उपयोग सामान्य को ही विषय करता है, अगर व्यंजनावग्रह में ही अव्यक्त शब्द का ग्रहण मान लिया जाए तो वह अर्थावग्रह हो जाएगा, क्योंकि उसने अर्थ (सामान्य) का ग्रहण किया है। इसलिए व्यंजनावग्रह में सामान्य विशेष से रहित सम्बन्ध मात्र होता है, ऐसा ही मानना उचित है । 288 अर्थावग्रह के काल में अर्थ का ग्रहण, ईहा और अपाय सम्भव नहीं है। इसलिए अर्थावग्रह में 'यह शब्द है' ऐसी विशेष बुद्धि नहीं होती है। क्योंकि जहाँ विशेष बुद्धि है वहाँ अपाय ही होगा, अर्थावग्रह, ईहा नहीं। इससे इन दोनों का अभाव हो जाएगा। यदि अर्थावग्रह में विशेष बुद्धि मानेंगे तो सामान्य ग्रहण, उसमें अविद्यमान सामान्य धर्मों की ईहा, फिर हेय धर्मों का त्याग और उपादेय धर्मो का ग्रहण यह सारा कार्य एक समयवर्ती अवग्रह में सम्भव नहीं है। अर्थावग्रह को आगम जो एकसमयवर्ती में बताया है, उसके साथ विरोध आएगा। 289 दूसरा मतान्तर - कुछेक आचार्यों का मानना है कि अनिर्देश्य सामान्य (संकेतादि विकल्प से रहित) ज्ञान सद्योजात (तत्काल जन्मा) बालक को होता है, किन्तु जो विषयों (पदार्थों) से परिचित हैं, उनको तो प्रथम समय में ही विशेष ज्ञान होता है। जिनभद्रगणि का समाधान इस प्रकार तो विषय से अधिक परिचित व्यक्ति को प्रथम समय में ही 'यह शंख का शब्द है' इत्यादि अवाय ज्ञान भी हो जाएगा। यदि प्रथम समय में विशेष ज्ञान का होना माना जाय तो अर्थावग्रह के एक समय तक होने की बात खण्डित हो जाती है, जो कि आगमविरुद्ध है, क्योंकि विशेषज्ञान असंख्य समय वाला होता है। इससे एक समय में ही अनेक उपयोगों का प्रसंग उपस्थित होगा, लेकिन पुरुष की शक्तियों में तारतम्य दिखाई देते हैं, अतः एक समय में अनेक उपयोग होना संभव नहीं है। इसी प्रकार यदि हो तो सारा मतिज्ञान अवाय मात्र हो जाएगा अथवा अवग्रह मात्र रह जाएगा। आगम में अवग्रह आदि का जो निश्चित क्रम बताया है, वह खण्डित हो जाएगा। क्योंकि आगम में स्पष्ट उल्लेख है कि अवग्रह के बिना ईहा, ईहा के बिना अवाय और अवाय के बिना धारणा नहीं होती है। प्रथम समय में ग्रहण किया गया ज्ञान सामान्यविशेष रूप ज्ञान एकमेक हो जाएगा, जिससे सामान्य एवं विशेष का भेद ही घटित नहीं हो पायेगा । इसलिए परिचित विषयों का ज्ञान होने में भी प्रथम समय में सामान्य ग्रहण स्वीकार करना चाहिए । 290 - 286. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 254-256 288. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 261-265 290. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 268-272 287. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 257-260 289 विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 266-267
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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