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________________ तृतीय अध्याय - विशेषावश्यकभाष्य में मतिज्ञान [159] अर्थावग्रह का भेद उचित है यशोविजयजी ने भी ऐसा ही उल्लेख किया है 78 नैश्चयिक अवग्रह सामान्य अर्थावग्रह ही है। सांव्यवहारिक अवग्रह की भिन्नता का कारण एक बार अर्थ-अवग्रह के पश्चात् ईहा और अवाय हो जाते हैं, उसके पश्चात् भी यदि नई ईहा जगे, तो उस नई ईहा की अपेक्षा पिछले अवाय में अवग्रह का उपचार करके उसे व्यवहार में अवग्रह मानते हैं। 'ईहा के पहले जो होता है, वह अवग्रह होता है।' इस अपेक्षा से नई ईहा के पूर्ववर्ती अवाय में अवग्रह का उपचार किया जाता है। यदि उस दूसरी ईहा के पश्चात् अवाय होकर तीसरी ईहा और भी जगे, तो वह दूसरा अवाय भी तीसरी ईहा की अपेक्षा से उपचार करके अवग्रह माना जाता है। इस प्रकार जिस अवाय के पश्चात् नई ईहा जगे, उसे उपचार से व्यवहार में अवग्रह मानते हैं। जिस अवाय के पश्चात् नई ईहा नहीं जगती, उसे अवाय ही मानते हैं। कहने का तात्पर्य है कि नैश्चयिक अर्थावग्रह के पश्चात् ईहा द्वारा वस्तु-विशेष का जो अपाय ज्ञान होता है वह पुनः होने वाली ईहा एवं अपाय की अपेक्षा से उपचरित अर्थावग्रह कहलाता है। अपाय ज्ञान भी विशेष का आकांक्षी होता है। विशेष के ज्ञान की आकांक्षा के कारण वह अपायज्ञान सामान्य को ग्रहण करता है। सामान्य को ग्रहण करने के कारण वह (अपाय) अर्थावग्रह माना जाता है। तभी सामान्य एवं विशेष का व्यवहार सापेक्ष होता है। अवान्तर विशेष की अपेक्षा से पूर्व अपायज्ञान भी इस प्रकार सामान्यग्राही होने के कारण अर्थावग्रह होता है। यह उपचरित अर्थावग्रह कहलाता है। जैसे किसी शब्द पुद्गल का श्रवण होने पर ईहा और अवाय होकर जब यह निर्णय हो जाये कि 'मैंने जिसे जाना है, वह शब्द ही है, रूपादि नहीं।' यदि उसके पश्चात् यह जिज्ञासा उत्पन्न हो कि 'वह शब्द किसका है?' शंख का या धनुष्य का? तो इस जिज्ञासा की अपेक्षा पूर्व का वह निर्णय उपचार से व्यवहार में अवग्रह माना जाता है। यदि इसका भी निर्णय हो जाये कि 'यह शंख का ही शब्द है धनुष्य का नहीं' और फिर यह जिज्ञासा उत्पन्न हो कि 'यह शंख का शब्द, नवयुवक ने बजाया है या वृद्ध ने?' तो इस जिज्ञासा की अपेक्षा पूर्व का दूसरा निर्णय भी उपचार से व्यवहार में अवग्रह माना जाता है। इस अपेक्षा से नंदीचूर्णि में भी अवग्रह के तीन भेद माने हैं - व्यंजनावग्रह, सामान्य अर्थावग्रह और विशेष सामान्य अर्थावग्रह।280 धवला में अवग्रह के विशदावग्रह और अविशदावग्रह ये दो भेद बताये हैं। विशदावग्रह निर्णयात्मक होता हुआ ईहा, अवाय एवं धारणा ज्ञान की उत्पत्ति में कारण बनता है। वह अवग्रह निर्णय रूप होता हुआ भी ईहा, अवाय आदि निर्णयात्मक ज्ञानों से पृथक् होता है। अविशदावग्रह किसी पुरुष की भाषा, आयुष्य, रूपादि विशेषों का ग्रहण किए बिना पुरुष मात्र (सामान्य) का ग्रहण करने वाला तथा अनियम से ईहा आदि की उत्पत्ति में कारण है।1 धवला का अविशदावग्रह नैश्चयिक के समान और विशदावग्रह सांव्यवहारिक के समान है। 277. विशेषावश्यकभाष्य, गाथा 285-288 278. अथवा अवग्रहो द्विविध:- नैश्चयिक: व्यावहारिकश्चः""जैनतर्कभाषा" पृष्ठ 16 279, जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण 'विशेषावश्यकभाष्य' गाथा 282-284 280. सो उ उग्गहो तिविहो-विसेसावग्गहो सामण्णत्थावग्गहो विसेससामण्णत्थावग्गहो य। - नंदीचूर्णि, पृ. 58 281. तत्र विशदो निर्णयरूपः अनियमेनेहावाय-धारणाप्रत्ययोत्पत्तिनिबन्धनः । तत्र अविशदावग्रहो नाम अवगृहीतभाषावयोरूपादिविशेष: गृहीतव्यवहारनिबन्धनपुरुषमात्रसत्वादिविशेष: अनियमेनेहाद्यत्पत्तिहेतुः। षट्खण्डागम (धवला), पु. 9, सू. 4.1.45, पृ.145
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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