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________________ [78] विशेषावश्यकभाष्य एवं बृहद्वृत्ति के आलोक में ज्ञानमीमांसीय अध्ययन इन्द्रियों का क्षयोपशम जीव के सभी आत्म-प्रदेशों में पांचों इन्द्रियों के ज्ञानावरण का क्षयोपशम होते हुए भी सभी जगह से तद्विद् इन्द्रियों के विषय का ग्रहण नहीं होता है, क्योंकि रूपादि के ग्रहण करने में सहकारी कारण रूप बाह्य निर्वृत्ति जीव के सम्पूर्ण आत्म प्रदेशों में नहीं पायी जाती है, वह आत्मप्रदेशों के एक देश में होती है। इसी लिए सर्वांग क्षयोपशम होते हुए भी तद्विद इन्द्रिय के विषय का ग्रहण उसकी बाह्य निर्वृत्ति द्रव्येन्द्रिय से होता है।13 जैसे कि बाह्य निर्वृत्ति में स्थित उपकरण अर्थात् उस इन्द्रिय के विभिन्न अंग-उपांग के द्वारा ही उस इन्द्रिय के विषय का ग्रहण होता है, वैसे ही आभ्यंतर निर्वृत्ति के भी लब्धि और उपयोग रूप दो उपकरण होते हैं। इनके आधार से जीव जड़ इन्द्रियों का सहयोग लेकर उनके विषय को ग्रहण करता है अर्थात् जानता है। भावेन्द्रियाँ होने पर ही द्रव्येन्द्रियों से विषय का ग्रहण हो सकता है। सामान्यतया जीव जड़ इन्द्रियों तथा मन के सहयोग से ही पदार्थों को जानता है। लेकिन यह भी तभी सम्भव है, जब उसमें पदार्थ को जानने की क्षमता तथा विषय को जानने में प्रवृत्ति हो। इन दोनों में से एक का भी अभाव हो तो जड़ इन्द्रियां अपने विषय का बोध नहीं कर सकती हैं। भावेन्द्रिय एवं द्रव्येन्द्रिय में कार्य-कारण भाव वीरसेनाचार्य ने धवला टीका में उल्लेख करते हुए कहा है कि भावेन्द्रियाँ शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श नाम के ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से और द्रव्येन्द्रियों के निमित्त से उत्पन्न होती हैं। क्षयोपशम रूप भावेन्द्रियाँ कारण हैं और द्रव्येन्द्रियाँ कार्य है, इसलिए द्रव्येन्द्रियों को इन्द्रिय कहा जाता है। अथवा इसका दूसरा कारण यह हो सकता है कि उपयोग रूप भावेन्द्रियों की उत्पत्ति द्रव्येन्द्रियों के कारण है, अतः भावेन्द्रियां कार्य है और द्रव्येन्द्रियां कारण हैं। इसलिए भी द्रव्येन्द्रियों को इन्द्रिय कहा जाता है। इन्द्रियों से ज्ञानोत्पत्ति ज्ञानोत्पत्ति के सम्बन्ध में प्रायः यह मान्यता है कि जड़ इन्द्रियां और मन आदि ज्ञान के बाह्य साधन जब विषय से सम्बद्ध होते हैं, तब उस विषय का ज्ञान आत्मा में स्वतः ही उत्पन्न हो जाता है। इसके लिए उस जीव को विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती है। सांख्यतत्त्वकौमुदी में वाचस्पति मिश्र ने कहा है कि 'पदार्थ का इन्द्रियों द्वारा आलोचन किये जाने पर मन उस पर संकल्प-विकल्प करता है, तदुपरांत बुद्धि उसी विषय के आकार को धारण करती है। उस विषयाकार बुद्धि पर चैतन्य का प्रतिबिम्ब पड़ने पर विषय प्रकाशित होता है, जिसके फलस्वरूप वह ज्ञान होता है। ऐसा ही उल्लेख कणाद ने वैशेषिक सूत्र (3.1.18) में भी किया है कि 'पदार्थ, इन्द्रिय, मन तथा आत्मा का संयोग होने पर आत्मा में पदार्थ का ज्ञान उत्पन्न होता है।' इस प्रकार ज्ञानोत्पत्ति में आत्मा निष्क्रिय रहती है एवं उसे जो बोध होता, वह इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है। लेकिन यह मान्यता उचित नहीं है, क्योंकि ज्ञानोत्पत्ति में जड़ इन्द्रियाँ और मन साधन होते हैं तथा आत्मा को ही ज्ञान उत्पन्न होता है। जड़ इन्द्रियां और मन तब तक ज्ञानोत्पत्ति का कारण नहीं हो सकते जब तक कि आत्मा स्वयं इन्द्रिय रूप से परिणत न हो, उसमें बाह्य इन्द्रियों को उपयोग में लेने की क्षमता न हो या विषय ग्रहण करने में उसकी प्रवृत्ति न हो। सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष में जड़ इन्द्रिय तथा मन की सहायता से ही ज्ञान होता है। अत: इन्द्रिय और मन ज्ञान में साधन मात्र हैं। 113. षट्खण्डागम, पु. 1, सू. 1.1.33 पृ. 234 114. षट्खण्डागम, पु. 1, सू. 1.1.4, पृ. 135
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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