SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय अध्याय - ज्ञानमीमांसा : सामान्य परिचय [79] जीव की अनिन्द्रियता जीव क्षायिक लब्धि के कारण अनिन्द्रिय होता है। कोई शंका करे कि अनिन्द्रिय होने पर जीव के इन्द्रियों का नाश होने से ज्ञान का भी विनाश हो जाएगा और ज्ञान का विनाश होने पर जीव अजीव तुल्य हो जाएगा। इस प्रकार की शंका का समाधान देते हुए वीरसेनाचार्य कहते हैं कि जीव ज्ञान स्वभावी है, इसलिए इन्द्रियों का विनाश होने पर भी ज्ञान का नाश नहीं होता है। क्योंकि छमस्थ अवस्था में कारण रूप से ग्रहण की गई इन्द्रियां जीवों के भिन्न जातीय ज्ञान की उत्पत्ति में सहकारी कारण हो, ऐसा नियम नहीं है। क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर मोक्ष तक के अभाव का प्रसंग उपस्थित हो जाएगा।15 श्रोत्रादि इन्द्रियों की प्राप्यकारिता-अप्राप्यकारिता जैनदर्शन के अनुसार श्रोत्रादि पांच इन्द्रियों में से श्रोत्रेन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय, ये चार इन्द्रियां प्राप्यकारी तथा चक्षु इन्द्रिय अप्राप्यकारी होती है। जो इन्द्रिय अपने विषय को स्पृष्ट होने पर जानती है, वह प्राप्यकारी और जो इन्द्रिय अपने विषय को अस्पृष्ट होकर जानती है, वह अप्राप्यकारी होती है। श्रोग्रेन्द्रिय की प्राप्यकारिता बौद्ध दर्शन में श्रोत्रेन्द्रिय को अप्राप्यकारी माना गया है। जैनाचार्यों ने इसका खंडन किया है। नंदीसूत्र में श्रोत्रेन्द्रिय को व्यंजनावग्रह माना गया है। आवश्यकनियुक्ति में उल्लेख है कि शब्द स्पृष्ट अवस्था में ही सुना जाता है। समान श्रेणी में आते हुए शब्द मिश्र रूप से सुनने में आते हैं, विश्रेणी से आये हुए वासित शब्द सुने जाते हैं, तथा वक्ता काययोग से शब्द को ग्रहण करता है और वचन योग से निर्गमन करता है। बाद के आचार्यों ने अच्छी प्रकार से इसका खंडन किया है। जिनभद्र कहते हैं कि अन्य स्थान से शब्द आकर श्रोत्र को प्राप्त होता है।17 ___ मलयगिरि कहते हैं कि श्रोत्रेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय के समान विषयकृत अनुग्रह-उपघात से प्रभावित होती है। अत: यह इन्द्रिय अप्राप्यकारी नहीं है। इसके लिए टीकाकार ने चाण्डाल और श्रोत्रिय ब्राह्मण का परस्पर शब्द आदि का सम्बन्ध बताते हुए कहा है कि चाण्डाल शब्द का स्पर्श होने से ब्राह्मण अपवित्र नहीं हो जाता है।18 शंका - प्राप्यकारी का जो अर्थ किया है उससे स्पर्शनेन्द्रिय और रसनेन्द्रिय प्राप्यकारी घटित होती है, लेकिन श्रोत्रेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय प्राप्यकारी घटित नहीं होती है क्योंकि यह दोनों इन्द्रियाँ दूरवर्ती देश में स्थित स्वविषयक पदार्थ को भी ग्रहण कर लेती हैं। समाधान - श्रोत्रेन्द्रिय और घ्राणेन्द्रिय के विषय शब्द और गन्ध स्वयं ही इन्द्रिय से स्पृष्ट होते हैं, ये इन्द्रियाँ जाकर शब्द और गन्ध को ग्रहण नहीं करती हैं, क्योंकि शब्द और गन्ध पौद्गलिक और सक्रिय हैं। जैसेकि वायु से चूंआ गति करता है, वैसे ही शब्द और गन्ध भी वायु द्वारा गति करते हैं। श्रोत्र और घ्राणेन्द्रिय के साथ शब्द और गन्ध सम्बद्ध होकर ही उपघात (बहिरापन, जिसमें नासिका फूल जाती है ऐसा पूति रोग) या अनुग्रह (शब्द और गन्ध से अनुकूल वेदन) आदि कार्य 115. षट्खण्डागम पु. 7, सू. 2.1.16 पृ. 68 116. आवश्यकनियुक्ति गाथा 5,6.7 विशेषावश्यकभाष्य गाथा 336, 351, 355 117. विशेषावश्यक भाष्य गाथा 205-207, राजवार्तिक 1.19.3, तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक 1.19.91 से 98, न्यायकुमुदचन्द्र भाग 1, पृ. 83, हारिभद्रीय पृ. 50, मलयगिरि पृ. 170, जैनतर्कभाषा पृ. 8 118. मलयगिरि, पृ. 172
SR No.009391
Book TitleVisheshavashyakbhashya ka Maldhari Hemchandrasuri Rachit Bruhadvrutti ke Aalok me Gyanmimansiya Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPavankumar Jain
PublisherJaynarayan Vyas Vishvavidyalay
Publication Year2014
Total Pages548
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy