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________________ समर्थ वा मह वा कदा धान्यं भविष्यति । इति प्रश्ने शुभेदृष्टे शुभयुक्त बलाधिके ।। ७८३ ।। समय सबले लग्ने महघमवले पुनः । क्रेता चेत्स्वगृहं पुष्टं पश्यति सबलं शुभः ।। ७८४॥ तदा धान्यं समर्घ स्याच्छुभकालः प्रवर्तते । धनस्थानेश्वरे दुष्टे महर्ष स्यात्क्रणादिकम् ।।७८५।। सरले लामनाथेऽपि महर्ष स्यात्कणादिकम् । अबले तत्र लाभश महर्घ तु वदेत्सुधीः ।।७८६।। येन ग्रहेण लग्नस्य शुभत्वं प्रतिपद्यते । क्रमाद् ग्रहः समंचार्यो धर्मादिसर्वगशिपु ॥६८७|| यावाशी शुभः स स्यात्तावन्मासान् समर्थना । यावत्कालं भवेटस्तावत्कालं महर्घता ॥७८८।। कब धान्य, समर्थ, वा महर्घ होगा इस प्रश्न में लग्न में शुभ ग्रहों का योग तथा दृष्टि हो और बलवान् हो तो ममर्थ होता है ।। ७८३ ।। मबल लग्न में समर्थ होता है और निर्बला लग्न में महर्घ होता है। यदि केना अपने समल तथा पुष्ट घर को देग्वे तो शुभ होता है ||४|| और धान्य समर्थ तथा शुभ काल होता है, यदि धनेश दुष्ट हो तो कगादिक महर्घ होता हे ॥ ७८५ ॥ - लाभेश के मबल रहने पर भी कणादिक महर्घ होता है और लाभेश निर्बल हो तो भी महर्घ होता है ।। ७८६ ॥ जिन ग्रहों के योग से लग्न को शुभ कहा गया है उन ग्रहों को क्रम से धर्मादि भावों में संचारित करके विचार करें ।। ७८७ ।। वह ह जितने राशिपर्यन्त शुभ हो उतने मासों तक समर्घ होता है और जितने काल तक दुष्ट हों उतने कालों तक महर्षना होती है || ७८८॥ 1. समर्थ for महर्घ A.
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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