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________________ (११) अर्घकाण्डं प्रवक्ष्यामि लग्नान् गुरूपदेशतः । यथादृष्टं यथाभूतमुफ्काराय धीमताम् ॥ ७७७ ॥ क्रेता लमपतिज्ञेयो विक्रेतायपतिः स्मृतः । गृहाम्यहमिदं वस्तु सति प्रश्ने ह्यमूशि ॥ ७७८ ।। बलाढ्यं प्रश्नलग्नं चेद् गृखते तत् क्रयाणकम् । तस्मात्क्रयाणकाल्लामः सतां भवति संमतः ॥ ७७९ ॥ विक्रीणाम्यमुकं वस्तु प्रश्ने एवं विधे सति । आयस्थाने बलवति विक्रेतव्यं क्रयाणकम् ।। ७८० ।। विक्रेता लग्नपो ज्ञेयो ग्राहकस्त्वस्तभावपः । यो यस्य स्थानगः सोऽर्थी स दृगयोगे तयोः शुभम् ।। ७८१ लग्नेशः स्वोच्चगेहादौ विक्रेना द्रविणेश्वरः । एवंविध तु जायेशे ग्राहकोऽपि धनेश्वरः ॥ ७८२ ॥ अब लग्न सं गुरु के उपदेश के अनुसार बुद्धिमानों के उपकार के लिये जैसा मैं ने देखा, तथा अनुभव किया वैसे ही अर्घकाण्ड को मैं कहता हूँ॥ ७७७ ॥ ऐसे इस वस्तु को खरीदूंगा इस प्रश्न मे लग्नेश को केवा, तथा मायेश को विक्रेता समझ कर विचार करें ।। ७७८॥ यदि प्रश्न लग्न बलवान् हो उस समय में जो वस्तु खरीद करें तो उस से अवश्य ही लाभ होगा ऐसा सज्जनों का मत है ।। ७७६ || इस वस्तु को बेचूंगा इम प्रश्न में यदि लाभेश, बलवान हो तो उसको बेच लेवें ।। ७८०॥ लग्नेश को विक्रेता सप्तमेश को ग्रह का समझ कर ये जिसके भाव में हों वह याचक होता है और दृष्टि योग होने से दोनों को शुम होता हे ।। ७८१॥ लमेश यदि अपने उच्चादि स्थित हो तो विक्रता बहुत धनी होता है, इस प्रकार सप्तमेश यदि उच्चादि में हो तो ग्राहक धनेश्वर होता है |७८२|| $ लग्नाद् for लग्नान् Bh. 1. जायेशो for जायेशे A. AL
SR No.009389
Book TitleTrailokya Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHemprabhsuri
PublisherIndian House
Publication Year1946
Total Pages265
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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