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________________ 56 दृष्टि का विषय ११ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की दृष्टि का विषय दर्शाती गाथाएँ गाथा ५३२ - अन्वयार्थ – ‘इस असद्भूतव्यवहारनय को जानने का फल यह है कि यहाँ पराश्रितरूप से होनेवाले भावक्रोधादि सम्पूर्ण उपाधिमात्र छोड़कर बाकी के उसके (जीव के) शुद्धगुण हैं ऐसा मानकर यहाँ कोई पुरुष सम्यग्दृष्टि हो सकता है।' इस गाथा में सम्यग्दर्शन का विषय बतलाया है और उसके भाने से जीव सम्यग्दृष्टि हो सकता है ऐसा बतलाया है। भावार्थ-'इस असद्भूतव्यवहारनय का प्रयोजन यह है कि-रागादिभाव को जीव के कहे हैं, वह असद्भूतव्यवहारनय से है परन्तु निश्चय से नहीं (निश्चय से जो भाव जिसके लक्ष्य से हों, वे भाव उसके समझना, इसीलिए जो द्रव्य रागादिभाव पुद्गलरूप हैं, वे कर्म के हैं और भाव रागादिभाव हैं, वे जीव के होने पर भी, वे कर्म के उदय के कारण होने से उन्हें कर्म के खाते में डालकर, निश्चय से उन्हें परभाव कहा जाता है, क्योंकि वे भाव सम्यग्दर्शन के लिये मैंपना'/ एकत्व करनेयोग्य भाव नहीं हैं।) इस कारण से कोई भव्यात्मा उपाधिमात्र अंश को छोड़कर (इस उपाधिरूप अंश छोड़ने की विधि प्रज्ञारूप बुद्धि से उसे गौण करने की है, दूसरी कोई नहीं) निश्चयतत्त्व को ग्रहण करने का इच्छुक बनकर सम्यग्दृष्टि हो सकता है, क्योंकि सर्व नयों में निश्चयनय ही उपादेय है परन्तु बाकी के कोई नय नहीं। बाकी के नय तो मात्र परिस्थितिवश प्रतिपाद्य विषय का निरूपणमात्र करते हैं। इसलिए एक निश्चयनय ही कल्याणकारी है..' गाथा ५४५-अन्वयार्थ-'ज्ञेय-ज्ञायकभाव में सम्भव होनेवाले संकरदोष के भ्रम का क्षय करना अथवा अविनाभाव से सामान्य को साध्य और विशेष को साधक होना, वही इस उपचरित असद्भूतव्यवहारनय का प्रयोजन है।' अर्थात् पर को जानने से संकरदोष होता है ऐसे भ्रम का नाश करना वह प्रयोजन है और साथ ही साथ ऐसा भी बतलाया है कि पर को जानना वह स्व में जाने की सीढ़ी है क्योंकि स्थूल से ही सूक्ष्म में जाया जाता है अर्थात् प्रगट से ही अप्रगट में जाया जाता है अर्थात् व्यक्त से ही अव्यक्त में जाया जाता है, यही नियम है अर्थात् पर को जानना वह सम्यग्दर्शन होने में मददरूप हो सकता है, नहीं कि अड़चनरूप और इसलिए किसी ने ‘पर को जानने से आत्मा मिथ्यादृष्टि हो जायेगा'-ऐसा मानने का कोई कारण नहीं क्योंकि यही ज्ञान का स्वभाव है। जैसे कार्तिकेयानुप्रेक्षा
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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