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________________ दृष्टि का विषय दर्शाती गाथाएँ गाथा २४७ में बतलाया है कि यदि समस्त वस्तु एक ज्ञान ही है और वही नानारूप से स्थित है-रहती है तो ऐसा मानने पर ज्ञेय कुछ भी नहीं सिद्ध हुआ और ज्ञेय के बिना ज्ञान ही किस प्रकार सिद्ध होगा?' भावार्थ-'...क्योंकि ज्ञेय को जाने वही ज्ञान कहलाता है परन्तु ज्ञेय के बिना ज्ञान नहीं।' भावार्थ-‘उपचरित सद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से अर्थ-विकल्प को प्रमाण (अर्थात् स्व-पर के जानने को प्रमाण) कहने का प्रयोजन यह है कि ऐसा कहने से ज्ञान और ज्ञेय में जो संकरपने का भ्रम होता था (अर्थात् जिन्हें लगता है कि आत्मा पर को जानता है ऐसा मानने पर सम्यग्दर्शन नहीं होता. वैसा संकरपने का भ्रम होता है) उस भ्रम का यह निवारण हो जाता है। क्योंकि ज्ञान को अर्थ-विकल्पात्मक (पर को जाननेवाला) कहना वह उपचरित सद्भूतव्यवहारनय की अपेक्षा से है। ज्ञान, ज्ञायक है तथा स्व-पर, ज्ञेय होते हैं। इसलिए ज्ञान और ज्ञेय में वास्तव में संकरता नहीं होती (पूर्व में जैसे दर्पण का दृष्टान्त समझाया है, तद्नुसार) दूसरा प्रयोजन इस प्रकार है कि अर्थ-विकल्पात्मक विशेष ज्ञान (पर को जानना) साधक (अर्थात् स्व में जाने की सीढ़ी) है तथा सामान्यज्ञान साध्य है (अर्थात् पर को जानना वह ज्ञायक में जाने की सीढ़ी है यानि कि सम्यग्दर्शन करने के लिये यह विधि दर्पण के दृष्टान्त की तरह ही है) अर्थात् सामान्य ज्ञान, अनुपचरित सद्भूतव्यवहारनय का विषय साध्य (अर्थात् ज्ञायक अर्थात् परमपारिणामिकभाव, दृष्टि का विषय साध्य) तथा ज्ञान को अर्थ विकल्पात्मक (अर्थात् ज्ञान पर को जानता है ऐसा) कहना वह उपचरित सद्भूतव्यवहारनय का विषय साधक (सीढ़ी) है।' यहाँ विशेष यह है कि इसलिए ही भेदज्ञान के लिये, सम्यग्दर्शन के लिये कहा जा सकता है कि - जैसे किसी महल के झरोखे में से निहारता पुरुष, स्वयं ही ज्ञेयों को निहारता है, नहीं कि झरोखा; उसी प्रकार इस झरोखा रूपी आँख से जो ज्ञेयों को निहारता है, वह ज्ञायक स्वयं ही, नहीं कि आँखें और ‘वह ही मैं हूँ' 'सोऽहं' वह 'ज्ञानमात्रस्वरूप ही मैं हूँ' अर्थात् मैं मात्र देखने-जाननेवाला ज्ञायक-ज्ञानमात्र-शुद्धात्मा हूँ, ऐसे लक्ष्य में लेने से ज्ञायकरूप सामान्य ज्ञान साध्य होता है और पर को जानना वह साधनरूप (सीढ़ीरूप) होता है कि जो अर्थ विकल्पात्मक ज्ञान है; यही सम्यग्दर्शन की विधि है। जीव को पर को जाननेवाला कहकर, उसमें से प्रयोजन सिद्ध करने के बाद अब जीव को क्रोधादिवाला कहने से क्या प्रयोजन सिद्ध होता है, वह बतलाते हैं अर्थात् राग जीव में होता है, उससे क्या प्रयोजन है? गाथा ५६५-अन्वयार्थ- (वर्णादि भाव जीव के हैं) इस प्रकार का कहना योग्य नहीं है क्योंकि जिस प्रकार क्रोधादिभाव (रागादिभाव) जीव के सम्भवते हैं उस प्रकार पुद्गलात्मक शरीर के वर्णादि जीव के सम्भवित हो ही नहीं सकते।'
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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