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________________ सम्यग्दर्शन का विषय अर्थात् दृष्टि का विषय है, परन्तु जो यहाँ बतलायी हुई युक्ति अनुसार दृष्टि का विषय न मानकर, अन्यथा ग्रहण कर हैं, वे शुद्धनयाभासरूप एकान्त शुद्धात्मा को खोजते हैं और मानते हैं, वे मात्र भ्रमरूप ही परिणमते हैं और वैसा एकान्त शुद्धात्मा कार्यकारी नहीं, क्योंकि वैसा एकान्त शुद्धात्मा प्राप्त ही नहीं होत और इस कारण से वह जीव भ्रम में ही रहकर अनन्त संसार बढ़ाकर अनन्त दुःखों को प्राप्त करता है; जैनशासन के नय के अज्ञान के कारण और समझे बिना मात्र शब्द को ही ग्रहण करके उसके ही आग्रह के कारण ऐसी दशा होती है जो अत्यन्त करुणाजनक बात है। 55 यहाँ समझाया गया शुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय है, वही उपादेयरूप शुद्धात्मा है और वही सम्यग्दर्शन का विषय है। इसीलिए अर्थात् भेदज्ञान कराने को और शुद्धात्मा का अनुभव कराने के लिये ही नियमसार और समयसार जैसे आध्यात्मिक शास्त्रों में उसकी ही महिमा गायी है और उसी का महिमा मण्डन किया है। इसलिए उन शास्त्रों में प्रमाण के विषयभूत आत्मा में से जितने भाव पुद्गलाश्रित हैं अर्थात् जितने भाव कर्माश्रित (कर्म की अपेक्षा रखनेवाले) हैं, वैसे भावों को परभावरूप से वर्णन किया है अर्थात् उन्हें स्वाँगरूप भावों के रूप में वर्णन किया है कि जो भाव हेय हैं अर्थात् 'मैंपना' करनेयोग्य नहीं, इसी अपेक्षा सहित अब हम पंचाध्यायी की गाथाएँ देखेंगे।
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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