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________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ वह भेद मूल से विवक्षित करने में नहीं आता, उस समय वे तीनों (भेद) भी प्रतीत नहीं होते।' भावार्थ - 'ऊपर के कथन का सारांश यह है कि - पदार्थ सामान्य-विशेषात्मक है और दोनों नय (द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक) पदार्थ के सामान्य, विशेष धर्मों में से परस्पर सापेक्ष किसी एक धर्म को मुख्यरूप से तथा दूसरे धर्म को गौणरूप से विषय करते हैं (इसलिए द्रव्यार्थिक चक्षुवाले को जहाँ प्रमाणरूप द्रव्य, मात्र सामान्यरूप ही ज्ञात होता है, वहाँ पर्यायार्थिक चक्षुवाले को वह प्रमाणरूप द्रव्य मात्र पर्यायरूप ही ज्ञात होता है और प्रमाणचक्षु से देखने में आने पर वही प्रमाणरूप द्रव्य, उभयरूप अर्थात् द्रव्य-पर्यायस्वरूप ज्ञात होता है; इसलिए समझना यह है कि जैन सिद्धान्त में सब कुछ विवक्षावश अर्थात् अपेक्षा से कहा जाता है, नहीं कि एकान्त से; इसलिए जब ऐसा प्रश्न होता है कि पर्याय किसकी बनी है ? और उत्तर - द्रव्य की = ध्रौव्य की, ऐसा दिया जावे तो जैन सिद्धान्त नहीं समझनेवालों को लगता है कि पर्याय में द्रव्य कहाँ से आ गया ? अरे भाई ! पर्याय है वह द्रव्य का ही वर्तमान है और कोई भी वर्तमान उस द्रव्य का ही बना हुआ होगा न! दृष्टान्त-जैसे समुद्र में लहरें किसकी बनी हुई हैं? तो कहना पड़ेगा कि पानी की अर्थात् समुद्र की और मिट्टी का घड़ा किसका बना हुआ है? तो कहना पड़ेगा कि मिट्टी का ; इसी प्रकार स्वर्ण के कुण्डलादिक आकारोंरूप पर्यायें किसकी बनी हुई है ? तो कहना पड़ेगा कि स्वर्ण की ; अब पूछते हैं कि ज्ञेयाकाररूप पर्यायें किसकी बनी हुई है ? तो कहना पड़ेगा कि ज्ञान की और वह ज्ञान सामान्य ही ज्ञायक है। ऐसी ही द्रव्य पर्यायरूप वस्तुव्यवस्था है कि जिसे समझे बिना मिथ्यात्व का दोष खड़ा ही रहनेवाला है; इसीलिए ही यह वस्तुव्यवस्था सर्व प्रथम स्पष्ट समझना अत्यन्त आवश्यक है।) इसलिए जिस समय भेदविवक्षित होता है, उस समय अभेद गौण हो जाने से उत्पादादिक तीनों प्रतीत होने लगते हैं, इसीलिए जिस समय द्रव्यार्थिकनय द्वारा अभेदता विवक्षित होती है, उस समय भेद गौण हो जाने से उत्पादादिक तीनों में से किसी की प्रतीति नहीं होती परन्तु मात्र एक सत् ही सत् प्रतीतिमान होता है । ' जैन सिद्धान्त में त्रिकाल ध्रुवरूप वस्तु अथवा पर्यायरहित का द्रव्य लक्ष्य में लेने की ऐसी है विधि क्योंकि अभेद द्रव्य में से कुछ भी निकालना हो तो वह मात्र प्रज्ञा से= बुद्धि से ही (लक्ष्य करने से - मुख्य गौण करने से ही) निकाला जा सकता है, अन्यथा नहीं, जो हम आगे विचार करेंगे। आगे शंकाकार नयी शंका करता है कि - 37 गाथा २१८ अन्वयार्थ 'शंकाकार का कहना ऐसा है कि निश्चय से उत्पाद और व्यय ये दोनों ही अंशस्वरूप भले हों, परन्तु त्रिकालगोचर जो ध्रौव्य है, वह किस प्रकार अंशात्मक होगा? यदि ऐसा कहो तो' - इस शंका का समाधान - 1 -
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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