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________________ दृष्टि का विषय - गाथा २१९ – अन्वयार्थ - ' ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि वास्तव में ये तीनों अंश स्वयं सत् ही है परन्तु सत् के नहीं, क्योंकि - यहाँ सत् वह अर्थान्तरों की भाँति एक-एक होकर अनेक है, ऐसा नहीं है।' 38 भावार्थ - 'ऊपर की शंका ठीक नहीं है, क्योंकि जैन सिद्धान्त में सत् के उत्पाद, व्यय, और ध्रौव्यरूप अंश नहीं माने हैं परन्तु सत् स्वयं ही उत्पाद - व्यय - ध्रौव्यात्मक माना है (अर्थात् द्रव्य को एक, अखण्ड, अभेदस्वरूप ही माना है जो वास्तविकता है और वह स्वयं ही उत्पादव्ययरूप होता है) उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य ये तीनों प्रत्येक भिन्न-भिन्न पदार्थों की भाँति मिलकर अनेक नहीं है परन्तु विवक्षावश ही (भेदनय से अथवा मुख्य-गौण से ) ये तीनों भिन्न-भिन्नरूप से प्रतीत होते हैं। इसका स्पष्टीकरण - , गाथा २२० - अन्वयार्थ - 'इस विषय में यह उदाहरण है कि - यहाँ जो उत्पादरूप से परिणत सत् जिस समय उत्पाद द्वारा लक्ष्यमान होता है, उस समय वस्तु को केवल उत्पादमात्र कहने में आता है।' भावार्थ - 'पदार्थ, अनन्त धर्मात्मक है, शब्द व नयात्मक ज्ञान के अंश द्वारा उसके सम्पूर्ण धर्म विषयभूत नहीं हो सकते इसलिए उन अनन्त धर्मों में जो ज्ञानांश या शब्द द्वारा जो कोई भी एक धर्म विषयभूत होता है, उस ज्ञानांश या शब्द द्वारा ( प्रज्ञा = बुद्धि द्वारा) वस्तु उस समय केवल उसी धर्मरूप जानने में आती है या कहने में आती है। (जैसे कि आत्मा को ज्ञानमात्र कहने पर उसका मात्र ज्ञानगुण ही लक्ष्य में नहीं लेना है परन्तु पूर्ण वस्तु अर्थात् पूर्ण आत्मा ही ज्ञानमात्र कहने से ग्रहण करना) इस न्यायानुसार जिस समय में नवीन-नवीनरूप से परिणत सत् उत्पादरूप, ज्ञान तथा शब्द द्वारा विवक्षित होता है, उस समय वह सत् केवल उत्पादमात्र कहने में आता है।' यहाँ कोई ऐसा कहे कि ध्रुव तो उत्पाद - व्यय से अलग होना ही चाहिए अथवा रखना ही चाहिए, द्रव्य को केवल उत्पादमात्र कैसे कहते हो? तो उत्तर यह है कि वस्तु के (सत् के) एक अंश को लक्ष्य में लेकर अर्थात् मुख्य करके कथन करने में आवे तो बाकी के समस्त अंश उसमें ही अंतर्गर्भित हो जाते हैं अर्थात् एक को मुख्य करने पर बाकी के सब अपने आप ही अत्यन्त गौण हो जाते हैं और उस मुख्य अंश से ही पूर्ण वस्तु का व्यवहार होता है अर्थात् प्रतिपादन, प्रस्तुति होती है, वहाँ प्रतिपादन अन्य अंशों को छोड़कर एक अंश का नहीं होता परन्तु एक अंश को मुख्य और अन्य अंशों को गौण करके होता है और यही जैन सिद्धान्त की प्रतिपादन क शैली है कि जिसे स्याद्वाद कहा जाता है जो कि जैन सिद्धान्त का प्राण है।
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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