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________________ पंचाध्यायी पूर्वार्द्ध की वस्तुव्यवस्था दर्शाती गाथाएँ कि जो ध्रौव्य से/गुण से भिन्न है ऐसा मानता है) तो यह आपत्ति आयेगी कि - गुण अपने अंशों से कम होने पर दुर्बल और अपने अंशों से बढ़ने पर क्या बलवान नहीं होंगे? __उसका समाधान - शंकाकार का उपरोक्त कहना ठीक नहीं है क्योंकि हमने पहले ही स्वत:सिद्ध द्रव्य को भलीभाँति परिणामी सिद्ध किया है अर्थात् द्रव्य स्वत:सिद्ध होने से, कथंचित् नित्य-नित्यात्मक द्रव्य में ही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य घटित हो सकते हैं। (अर्थात् द्रव्य स्वयं ही पर्यायरूप परिणमता है और इस कारण से पर्याय द्रव्य की ही बनी हुई है और द्रव्य पर्याय में ही छुपा हुआ है। अर्थात् पर्यायरूप विशेष भाव को गौण करते ही सामान्यरूप द्रव्य अनुभव में आता है)। परन्तु सर्वथा नित्य या अनित्य पदार्थ में नहीं। सारांश यह है कि आकार से आकारान्तररूप होने से उत्पाद, व्यय की और वस्तुता से (सामान्यभाव अपेक्षा से) तद्वस्थरूप होने से ध्रौव्यांश की (सामान्य भाव की) सिद्धि होती है। इसलिए उक्त प्रकार से (ऐसी रीति से) द्रव्य को कथंचित् नित्यानित्यात्मक मानने से उत्पादादि त्रय की तथा कारण-कार्यभाव की सिद्धि नहीं होती, ऐसी शंका निरर्थक है। यहाँ दृष्टान्त-' गाथा - १९६ - अन्वयार्थ - ‘जैसे सोने के अस्तित्व में ही कुण्डलादिक अवस्थायें उत्पन्न होती हैं और वे कुण्डलादिक अवस्थायें होने से ही नियम से उत्पादादिक तीनों सिद्ध होते हैं।' अर्थात् द्रव्य को परिणामी मानने से ही उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप व्यवस्था शक्य है, अन्यथा नहीं। ऐसी है जैन सिद्धान्त की वस्तुव्यवस्था। भावार्थ - ‘जैसे स्वर्ण के अस्तित्व में ही उसकी कुण्डल-कंकण आदि अवस्थायें सिद्ध होती हैं, क्योंकि उन अवस्थाओं के होने से ही स्वर्ण में उत्पादादिक होते हैं अर्थात् स्वर्ण का स्वर्णपना द्रव्यदृष्टि से तदवस्थ रहने पर भी पर्यायार्थिकदृष्टि से कुण्डल-कंकण आदि के ही उत्पादादिक होते हैं परन्तु यदि वास्तविक विचार किया जाये तो उन कुण्डलादिक अवस्थाओं में मात्र आकार से आकारान्तर ही है, परन्तु असत् की उत्पत्ति और सत् का विनाश नहीं। इसलिए शंकाकार का कथंचित् नित्यानित्यात्मक पदार्थ में उत्पादादिक नहीं बनेंगे, यह कहना युक्तिसंगत नहीं है। तथा कारण-कार्यभाव भी निम्न प्रकार सिद्ध होता है।' गाथा १९७ - अन्वयार्थ – 'इस प्रक्रिया अर्थात् शैली से ही निश्चय से कारण और कार्य की सिद्धि भी समझ लेना चाहिए क्योंकि इस सत् के ही सत् अर्थात् ध्रौव्य तथा उत्पाद और व्यय ये दोनों होते हैं।' भावार्थ - “जिस प्रकार कथंचित् नित्य-अनित्यात्मक पदार्थों में ही उत्पादादिकत्रय होते
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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