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________________ दृष्टि का विषय हैं, परन्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य पदार्थों में नहीं हो सकते-ऐसा सिद्ध किया, उसी प्रकार पदार्थों को नित्य-अनित्यात्मक मानने से ही कारण कार्यभाव भी सिद्ध हो सकता है, परन्तु सर्वथा नित्य या अनित्य पदार्थों में नहीं, क्योंकि सर्वथा नित्य पक्ष में परिणाम बिना कार्य-कारणभाव नहीं बन सकता तथा सर्वथा अनित्यपक्ष में पदार्थ मात्र क्षणवर्ती सिद्ध होने से और उनका प्रतिसमय निरन्वयनाश मानने से 'नित्य शक्ति पिण्डरूप सत् (द्रव्य) कारण है तथा अनित्य परिणामरूप उत्पादव्यय-ध्रौव्य उसके कार्य हैं।' ऐसा कार्यकारणभाव नहीं बन सकता, इसलिए कथंचित् नित्यअनित्यात्मक पदार्थों में ही उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य और कार्य-कारणभाव भलीभाँति सिद्ध होता है। क्योंकि नित्य-अनित्यात्मक पदार्थों में ही सत् के उत्पादादिक मानने में आये हैं परन्तु निरन्वयनाशरूप या कूटस्थ नित्य में नहीं...." । अर्थात् द्रव्य और पर्याय ये वस्तु के दो भाव हैं, नहीं कि दो भाग और इसलिए ही उसे कथंचित् नित्य-अनित्य कहा जाता है तथा सर्वथा नित्य-अनित्य ऐसा नहीं कहा जाता अथवा माना जाता। इसलिए जो कोई द्रव्य को एकान्त से नित्य-अपरिणामी और पर्याय को एकान्त से अनित्य-परिणामी मानते हों, उनका यहाँ निराकरण किया है अर्थात् ऐसी जिनकी धारणा हो, उन्हें अपनी धारणा सुधार लेने का अनुरोध है। गाथा २०० - अन्वयार्थ – 'निश्चय से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य ये तीनों पर्यायों में होते हैं परन्तु सत के नहीं होते परन्तु जिस कारण से ये उत्पादादिक पर्यायें ही द्रव्य है इसलिए द्रव्य इन उत्पादादिकत्रयवाला कहा जाता है।' यहाँ अंश-अंशीरूप भेदनय की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय-ध्रुव इन तीनों को भेदरूप पर्याय सिद्ध किया है क्योंकि अंश-अंशीरूप भेद न किया जाये तो सत् का नाश-सत् का उत्पाद और सत् का ही ध्रौव्य ऐसी विरुद्धता उद्भवित होती है इसलिए भेदनय से समझाया है कि सत् तो स्वत: सिद्ध ही होने पर भी वही उत्पाद-व्यय-ध्रुवरूप है और इसलिए भेदनय से ये तीनों उसकी पर्याय कही जाती है। उत्पाद का स्वरूप और वह उत्पाद किसका होता (कहा जाता) है? उत्तर - गाथा २०१ - अन्वयार्थ - “तद्भाव ('यह वही है') और अतद्भाव ('यह वह नहीं') को विषय करनेवाले नय की अपेक्षा से (अर्थात् द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा से) सत् सद्भाव और असद्भाव से युक्त है इसलिए वह उत्पादादिक में नवीन रूप से परिणमित उस सत् की अवस्था का नाम ही उत्पाद है।" अर्थात् द्रव्य की अवस्था बदलती है उसे ही उत्पाद कहा और पूर्व अवस्था को व्यय।
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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