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________________ दृष्टि का विषय विसदृशता दोनों होती हैं परन्तु ऐसा होने पर भी केवल उनका काल सूक्ष्म समयवर्ती होने से वह क्रम प्रतिसमय लक्ष में नहीं आता, इसलिए उसमें अन्यथात्व' (यह वैसा नहीं) और तथात्व (यह वैसा ही है) की विवक्षा ही नहीं की जा सकती। ऐसा नहीं।' जिस समय ज्ञान घटाकार मात्र है उस समय घट की जानने की योग्यता से और जिस समय लोकालोक को जानता है, उस समय वैसी योग्यता से ज्ञानगुण में कुछ न्यूनाधिकता नहीं होती, मात्र अगुरुलघु गुण का ही वह फल समझने योग्य है। गाथा १९३-१९४-१९५ - अन्वयार्थ - ‘शंकाकार का कहना ऐसा है कि इस प्रकार मानने से परमार्थ दृष्टि से घटाकार और लोकाकाररूप ज्ञान एक होने से उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य बन नहीं सकेंगे और न कोई किसी का उपादानकारण तथा न कोई किसी का कार्य भी बन सकेगा तथा गुण अपने अंशों से (पर्याय से) कम होने से दुर्बल और उत्कर्ष होने से बलवान क्यों नहीं होंगे? इस प्रकार से ऐसा भी बहुत भारी और दुर्जय दोष आयेगा। (उत्तर) यदि ऐसा कहो तो - ऐसा कहना ठीक नहीं है। क्योंकि द्रव्य तो पहले भलीभाँति परिणमनशील निरूपण किया है, (सिद्ध किया है) इसलिए उसमें उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य ये तीनों भलीभाँति घटित हो सकते हैं। परन्तु इससे उल्टा सर्वथा नित्य या अनित्य अर्थ मानने से नहीं घटित होंगे।' अर्थात् यदि वस्तु के (द्रव्य के) दो भाग मानने में आवें कि जिसमें का एक भाग सर्वथा नित्य मानने में आवे और एक भाग सर्वथा अनित्य अर्थात् नित्य और अनित्य को वस्तु के भाव की जगह विभाग अथवा भागरूप मानने में आवे तो उसमें उत्पाद-व्यय-ध्रुव घटित नहीं हो सकेगा और इसी कारण वैसी मान्यता जैन सिद्धान्त बाह्य है और मिथ्यात्व है, इसलिए ऐसी धारणा किसी की हो तो वह शीघ्रता से सुधार लेना चाहिए, अपेक्षा से सब कहा जाता है परन्तु वैसा एकान्त से माना नहीं जाता। भावार्थ - ‘शंकाकार का कहना ऐसा है कि यदि अवगाहन गुण की विचित्रता से द्रव्य में केवल आकार से आकारान्तर ही हुआ करता है तो द्रव्य की पूर्व-उत्तर अवस्थाओं में अभेदता होने के कारण से उसमें (यहाँ शंकाकार द्रव्य-पर्यायरूप वस्तु को एक अभेदरूप अनुस्युति से रचित प्रवाहरूप नहीं मानता) उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य नहीं बन सकेगा तथा किसी भी प्रकार का कार्य-कारणभाव (यहाँ शंकाकार कार्य-कारणभाव को भेदरूप मानता है, भिन्न मानता है) ही सिद्ध नहीं हो सकेगा तथा यदि गुणांश के तदवस्थ रहने पर भी अगुरु-लघु गुण के निमित्त से उसमें भूत्वा-भवनरूप परिणमन होता रहता है (यहाँ शंकाकार ध्रौव्य को/गुण को अपरिणामी मानता है-उसे अगुरु-लघु गुण के निमित्त से पर्याय मानता है और उसमें से पर्याय निकलती है
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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