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________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन 157 ५. संवर अधिकार : इस अधिकार में आचार्य भगवन्त बतलाते हैं कि जो सम्यग्दर्शन है अर्थात् जो शुद्धात्मा की अनुभूति है और उसमें ही स्थिरता है, वही साक्षात् संवर है। इस कारण इस अधिकार में भी आचार्य भगवन्त आत्मा के औदयिक भावों से भेदज्ञान कराकर जीवों को परमपारिणामिकभावरूप आत्मा के सहज परिणमनरूप शुद्धात्मा में ही स्थापित करते हैं और कहते हैं कि उस शुद्धात्मा का वेदन, अनुभवन और स्थिरता ही निश्चय से संवर का कारण है; इसलिए अज्ञानी को कार्यकारी संवर नहीं है, जबकि ज्ञानी को वह सहज ही होता है। जैसे कि - श्लोक १२९-'यह साक्षात् (सर्व प्रकार से) संवर वास्तव में शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि से (अर्थात् सम्यग्दर्शन से) होता है; और उस शुद्ध आत्मतत्त्व की उपलब्धि भेदविज्ञान से ही होती है इसलिए वह भेदविज्ञान अत्यन्त भाने योग्य है।' अर्थात् एकमात्र भेदविज्ञान का ही पुरुषार्थ कार्यकारी है। श्लोक १३०-'यह भेदविज्ञान अविच्छिन्न धारा से (अर्थात् जिसमें विच्छेद-विक्षेप न पड़े, ऐसे अखण्ड प्रवाहरूप से) तब तक भाना कि जब तक परभावों से छूटकर ज्ञान, ज्ञान में ही स्थिर हो जाये।' अर्थात् केवली बनने तक यही भेदज्ञान का अभ्यास निरन्तर करनेयोग्य है। ___ श्लोक १३१-'जो कोई सिद्ध हुए हैं, वे भेदविज्ञान से सिद्ध हुए हैं; और जो कोई बँधे हैं, वे उसके (भेदविज्ञान के) ही अभाव से बँधे हैं।' अर्थात् भेदविज्ञान जैनदर्शन का सार है और उसके लिये ही यह ‘समयसार' नाम का पूर्ण शास्त्र रचा गया है; इसलिए समयसार में सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने के लिये आत्मा को सम्यग्दर्शन के विषयरूप शुद्धात्मारूप से ही ग्रहण किया है और अन्य भावों से भेदविज्ञान कराया है। ६. निर्जरा अधिकार : इस अधिकार में आचार्य भगवन्त बतलाते हैं कि जो सम्यग्दर्शन है अर्थात् जो शुद्धात्मा की अनुभूति और उसमें स्थिरता है, वही साक्षात् निर्जरा है, अन्यथा नहीं। इस कारण से इस अधिकार में साक्षात् निर्जरा के लिये भी भेदज्ञान ही कराया है, क्योंकि एकमात्र शुद्धात्मा की शरण लेने से ही सम्यग्दर्शन प्रगट होता है और उस सम्यग्दृष्टि को ही साक्षात् निर्जरा होती है, अन्यथा नहीं। जैसे कि - ___ गाथा १९५-'जैसे वैद्य पुरुष विष को भोगता हुआ अर्थात् खाते हुए भी मरण को प्राप्त नहीं होता (क्योंकि उसे उसकी मात्रा, पथ्य-अपथ्य इत्यादि का ज्ञान होने से मरण को प्राप्त नहीं होता), इसी प्रकार ज्ञानी पुद्गलकर्म के उदय को भोगता है तथापि बँधता नहीं। क्योंकि ज्ञानी
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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