SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 173
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 156 दृष्टि का विषय परवृत्ति को-परपरिणति को उखाड़ता हुआ (अर्थात् अपूर्व निर्जरा करता हुआ) ज्ञान के पूर्ण भावरूप होता हुआ वास्तव में सदा निरास्रव है।' अर्थात् ऐसी है ज्ञान की साधना - स्वयं मात्र शुद्धात्मा में ही 'मैंपना' करता हुआ और उसी की अनुभूति करता हुआ बुद्धिपूर्वक अर्थात् प्रयत्नपूर्वक अर्थात् पूर्ण जागृतिपूर्वक, जो भी उदय आता है, उसके सामने लड़ता है अर्थात् उदय से परास्त हुए बिना अर्थात् उदय में मिले बिना, स्वयं शुद्धात्मा में ही बारम्बार स्थिरता का प्रयत्न करता है और यदि वैसी स्थिरता अन्तर्मुहर्त से अधिक हो जाये, तो ज्ञानी सर्व घातिकर्मों का नाश करके केवली हो जाता है और फिर कुछ काल में मुक्त हो जाता है ऐसा है मोक्षमार्ग। श्लोक १२० - ‘उद्यत ज्ञान (अर्थात् ज्ञानमात्र) जिसका लक्षण है ऐसे शुद्धनय में रहकर अर्थात् शुद्धनय का आश्रय करके जो सदा एकाग्रपने का ही अभ्यास करते हैं (अर्थात् शुद्धात्मा में ही 'मैंपना' करके, उसी का अनुभव करके, उसी में स्थिरता का अभ्यास करते हैं) वे निरन्तर रागादि से रहित चित्तवाले वर्तते हुए (अर्थात् शुद्धात्मा में रागादि का कण भी नहीं और उसमें ही मैंपना' करते हुए) बन्धरहित ऐसे समयसार को (अर्थात् अपने शुद्ध आत्मस्वरूप को) देखते हैं-अनुभव करते हैं।' श्लोक १२२-'यहाँ यही तात्पर्य है कि (अर्थात् इस अधिकार का यही उद्देश्य है कि) शुद्धनय त्यागनेयोग्य नहीं (अर्थात् मात्र शुद्धनय में ही रहने योग्य है, क्योंकि उसमें आस्रव नहीं होता), क्योंकि उसके अत्याग से (कर्म का) बन्ध नहीं होता और उसके त्याग से ही बन्ध होता है।' श्लोक १२३-'धीर (चलाचलतारहित) और उदार (सर्व पदार्थों में विस्तारयुक्त अथवा पूर्ण आत्मरूप) जिसकी महिमा है ऐसे अनादि-निधन ज्ञान में (अर्थात् त्रिकाली शुद्धज्ञान जो कि परमपारिणामिकभावरूप ज्ञान सामान्यमात्र है, उसमें) स्थिरता को बाँधता हुआ (अर्थात् उसमें ही 'मैपना' करता हुआ और उसका ही अनुभव करता हुआ) शुद्धनय - जो कि कर्मों को मूल से नाश करनेवाला है-पवित्र धर्मी (सम्यग्दृष्टि) पुरुषों को कभी भी छोड़नेयोग्य नहीं है (अर्थात् निरन्तर ग्रहण करनेयोग्य है अर्थात् उसमें ही स्थिरता करनेयोग्य है, उसका ही ध्यान करनेयोग्य है)। शुद्धनय में स्थित उन पुरुषों को (अर्थात् स्वात्मानुभूति में स्थित पुरुषों को) बाहर निकलते ऐसे अपने ज्ञानकिरणों के समूह को (अर्थात् कर्म के निमित्त से पर में जानेवाली ज्ञान की विशेष व्यक्तियों को) अल्पकाल में समेटकर पूर्ण ज्ञानघन के पुंजरूप (मात्र ज्ञानस्वरूप) एक, अचल शान्त तेज को-तेज पुंज को देखते हैं अर्थात् अनुभव करते हैं।'
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy