SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 175
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 158 दृष्टि का विषय विवेकी होने से उन कर्मों के उदय को भोगते हुए भी उस रूप नहीं होता अर्थात् स्वयं को उस रूप नहीं मानता, परन्तु अपना 'मैंपना' एकमात्र शुद्धभाव में ही होने से और उस उदय को चारित्र की कमजोरी के कारण भोगता होने से, उसे बन्ध नहीं है अर्थात् उसके अभिप्राय में भोग के प्रति जरा भी आदरभाव है ही नहीं क्योंकि उसका पूर्ण आदरभाव एकमात्र स्वतत्त्वरूप शुद्धात्मा में ही होता है और इस अपेक्षा से उसे बन्ध नहीं है परन्तु भोग में भी अर्थात् भोग-भोगते हुए भी निर्जरा है, ऐसा कहा जाता है। गाथा २०५ भावार्थ-'ज्ञानगुण से रहित (अर्थात् विवेकरूप ज्ञान से रहित) बहुत से लोग (बहुत प्रकार के कर्म करने पर भी) इस ज्ञानस्वरूप पद को प्राप्त नहीं करते (अर्थात् सम्यग्दर्शन प्राप्त नहीं करते); इसलिए हे भव्य! यदि तू कर्म से सर्वथा मुक्त होना चाहता हो (अर्थात् अपूर्व निर्जरा करना चाहता हो) तो नियत ऐसे इसे (ज्ञान को) (अर्थात् परमपारिणामिकभावरूप अर्थात् आत्मा के सहज परिणमन को जो कि सामान्य ज्ञानरूप है कि जिसे ज्ञायक अथवा शुद्धात्मा भी कहा जाता है, उसे) ग्रहण कर (अर्थात् उसमें ही मैंपना' करके उसका ही अनुभव करके, सम्यग्दर्शन प्रगट कर)।' गाथा २०६ गाथार्थ-(हे भव्य प्राणी)! तू इसमें नित्यरत अर्थात् प्रीतिवाला हो, इसमें नित्य सन्तुष्ट हो, और इससे तृप्त हो; (ऐसा करने से) तुझे उत्तम (उत्कृष्ट) सुख होगा।' अर्थात् शुद्धात्मा के आश्रय से ही मोक्षमार्ग और मोक्ष प्राप्त होगा जो कि अव्याबाध सुखरूप है। ___ श्लोक १६२-'इस प्रकार नवीन बन्ध को रोकता हुआ और (स्वयं) अपने आठ अंगों सहित होने के कारण (अर्थात् सम्यग्दृष्टि स्वयं सम्यग्दर्शन के आठ अंग सहित होता है, इस कारण से) निर्जरा प्रगट होने से पूर्वबद्ध कर्मों का नाश कर डालता हुआ सम्यग्दृष्टि जीव स्वयं अति रस से (अर्थात् निजरस में मस्त होता हुआ) आदि-मध्य-अन्तरहित ज्ञानरूप होकर (अर्थात् अनुभूति में मात्र ज्ञान सामान्य ही है, अन्य कुछ नहीं होने से कहा कि आदि-मध्य-अन्तरहित ज्ञानरूप होकर) आकाश के विस्ताररूपी रंगभूमि में अवगाहन करके (अर्थात सम्यग्दष्टि जीव के लिये वह ज्ञानस्वरूप लोक ही उसका सर्व लोक होने से, उसी रंगभूमि में रहकर अर्थात् चिदाकाश में अवगाहन करके) नृत्य करता है (अर्थात् अद्वितीय आनन्द का आस्वाद लेता है-अपूर्व आनन्द को भोगता है)।' ७. बन्ध अधिकार : ज्ञानी को एकमात्र सहज परिणमनरूप शुद्धात्मा में ही 'मैंपना' होने से और उसका ही अनुभव करता होने से तथा उस भाव में बन्ध का सदा अभाव होने से ज्ञानी को बन्ध नहीं है ऐसा कहा जाता है।
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy