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________________ समयसार के अधिकारों का विहंगावलोकन 155 मन्द उद्यमी हैं और इसलिए वे विषय कषाय में बिना संकोच वर्तते हैं)। (अब यथार्थ समझ युक्त जीव की बात करते हैं कि जो सम्यग्ददृष्टि हैं) वे जीव विश्व के ऊपर तैरते हैं (अर्थात् विश्व की अन्य किसी वस्तु में जिनका 'मैंपना' और 'मेरापना' नहीं, इसलिए उनमें उन्हें कुछ भी लगाव नहीं, इसलिए वे जीव विश्व के ऊपर तैरते हैं), कि जो स्वयं निरन्तर ज्ञानरूप होते-परिणमते हुए (अर्थात् अपने को परमपारिणामिकभावरूप अर्थात् सहज परिणमनरूप अर्थात् सामान्य ज्ञानरूप अनुभवते हुए) कर्म नहीं करते (अर्थात् कोई भी कर्म अथवा उसके निमित्त से होते भाव में 'मैंपना' और 'मेरापना' नहीं करते, कर्ताबुद्धि पोषित नहीं करते) और कभी प्रमाद के वश भी नहीं होते (अर्थात् बुद्धिपूर्वक स्व में रहने का सतत् पुरुषार्थ करते हैं)।' ४. आस्रव अधिकार : इस अधिकार में भी सम्यग्दर्शन प्राप्त कराने के लिये अर्थात् भेदज्ञान कराने के लिये, जो सम्यग्दर्शन का विषय है अर्थात् जो शुद्धात्मा है, उसमें आस्रवरूप भाव न होने से अर्थात् उसमें सर्व विभावभाव का अभाव होने से कहा है कि - ज्ञानी को आस्रव नहीं। अर्थात् ज्ञानी को आस्रवभावरूप जो अपना परिणमन है, उसमें मैंपना' नहीं होता और उसमें कर्तापना भी नहीं है क्योंकि ज्ञानी उस भावरूप स्वेच्छा से नहीं परिणमता परन्तु बलजोरीपूर्वक अर्थात् कमजोरी के कारण परिणमता होने से कर्तापना नहीं है। ज्ञानी को अल्प आस्रव होता अवश्य है, परन्तु ज्ञानी को अनन्तानुबन्धी कषायें और मिथ्यात्व का आस्रव न होने से भी ज्ञानी को आस्रव नहीं है, ऐसा कहा है। परन्तु यदि कोई इस बात को एकान्त से ग्रहण करके स्वच्छन्दता से आस्रव भावों का सेवन करे अथवा कोई अपने को ज्ञानी समझकर स्वच्छन्दता से आस्रव भावों का सेवन करे तो वह उसे महा अनर्थ का कारण है अर्थात् यदि कोई इस प्रकार से एकान्त से समझकर इसी प्रकार एकान्त से प्रतिपादन करता हो तो वह स्वयं तो भ्रष्ट है ही और अन्य अनेकों को भ्रष्ट कर रहा है अर्थात् जैन सिद्धान्त में विवेक की ही प्रधानता है अर्थात् सर्व कथन जिस अपेक्षा से कहा हो, उसी अपेक्षा से ग्रहण करना चाहिए, वही विवेक है; इसलिए सर्व मोक्षार्थियों को पूर्व में बतलाये अनुसार एकमात्र आत्म प्राप्ति के लक्ष्य से नियम से आस्रव के कारणों से दूर ही रहना योग्य है, यही जिन सिद्धान्त का सार है। ___ श्लोक ११६-‘आत्मा जब ज्ञानी होता है तब स्वयं अपने समस्त बुद्धिपूर्वक राग को निरन्तर छोड़ता हुआ अर्थात् नहीं करता हुआ (अर्थात् ज्ञानी को अभिप्राय में मात्र मुक्ति होने से किसी भी रागरूप परिणमित होने की अंशमात्र भी इच्छा नहीं होती) और जो अबुद्धिपूर्वक राग है, उसे भी जीतने को बारम्बार (ज्ञानानुभवनरूप) स्वशक्ति को स्पर्शता हुआ और (इस प्रकार से) समस्त
SR No.009386
Book TitleDrushti ka Vishay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayesh M Sheth
PublisherShailesh P Shah
Publication Year
Total Pages202
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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