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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥५७३॥ - और शुभ कर्म बन्ध से सुख को प्राप्त करते देखे जाते हैं [सयलकम्मछेएण जीवो मोक्खं पावइत्ति लोए पसिद्धं ] यह भी प्रसिद्ध है कि समस्त कर्मों का नाश होने से जीव मोक्ष को प्राप्त करता है । [ अणाइबंधो न छुट्टिज्जइ' त्ति जं तए कहियं तं पि मिच्छा ] अनादि बंध छूटता नहीं है ऐसा तुमने कहा सो भी मिथ्या है; [जओ लोए सुवण्णस्स मट्टियाए य जो अणाइ संबंधो सो छुट्टिज्जइ चेव ] क्योंकि लोक में स्वर्ण और मृत्तिका का जो अनादि संबन्ध है, वह छूटता ही है [तव सत्थेसु वित्तं- 'ममे तिवध्यते जन्तुर्निर्ममेतिः प्रमुच्यते' इच्चाइ । पुणो वि-] तुम्हारे शास्त्र में भी कहा है कि- 'ममत्व के कारण जीव को बन्धन होता है और ममता से रहित जीव मोक्ष को पाता है । इत्यादि । और भी कहा है [मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ] मन ही मनुष्यों के बन्ध और मोक्ष का कारण है [बन्धाय विषयासक्तं मुक्त्यै निर्विषयं मनः ] विषयों में निवृत्त मन मुक्ति का कारण होता है' [अओ सिद्धं जीवस्स बंधो मोक्खो य मंडितमौर्यपुत्रयोः शङ्कानिवारणम् प्रव्रजनं च ॥५७३ ॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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