SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 590
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्रे शङ्का ॥५७४॥ हवइ ति] इससे बन्ध और मोक्ष होता है, यह सिद्ध हुआ [एवं सोच्चा विम्हितो छिन्न मंडितसशब्दार्ये संसओ पडिबुद्धो मंडिओ वि अधुट्सयसीसेहिं पव्वइओ] इस प्रकार सुनकर मण्डिक Jan मौर्यपुत्रयोः विस्मित हुए। उनका संशय दूर हो गया। वह प्रतिबोध प्राप्त करके अपने साढे तीनसौ निवारणम् शिष्यों के साथ प्रवजित हो गया। प्रव्रजनं च [मण्डियं पव्वजियं सोच्चा मोरियपुत्तो वि निय संसयछेयण]] मण्डिक को दीक्षित हुआ सुनकर मौर्यपुत्र भी अपना संशय निवारण करने के लिये [अर्धद्र सयसीसेहिं परिवुडो पहुसमीवे पत्तो] साढे तीनसौ शिष्यों के परिवार सहित प्रभु के पास आया। 1 [तं पि पहू एवं चेव कहेइ-] प्रभुने उन से भी ऐसा कहा-[भो मोरियपुत्ता ! तुज्झ मणंसि एयारिसो संसओ वट्टइ-] हे मौर्यपुत्र ! तुम्हारे मन में ऐसा संशय है कि [जं देवा न संति 'को जानाति मायोपमान् गीर्वाणान् इन्द्र यम वरुण कुबेरादीन्' इइ वयणाओ] देव नहीं है क्योंकि-'माया के समान इन्द्र, यम वरुण और कुबेर आदि देवों ॥५७४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy