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________________ कल्पसूत्रे । एष विगुणो विभु न बध्यते संसरति वा मुच्यते मोचयति वा] अर्थात् यह निर्गुण और मंडितसशब्दार्थे मौर्यपुत्रयोः व्यापक आत्मा न बद्ध होता है न संसरण करता है न मुक्त होता है न किसी को मुक्त ॥५७२॥ करता है। [इच्चाइ वेयवयणाओ जीवस्स न बंधो न मोक्खो] इत्यादि वेद वाक्यों से निवारणम् प्रव्रजनं च न जीव का बंध होता है न मोक्ष होता है [जइ बंधो मन्निज्जइ ताहे सो अणाइयो वा! ॥ पच्छाजाओ वा?] यदि बन्ध माना जाय तो वह अनादि है अथवा पीछे से उत्पन्न हुआ है [जइ अणाइओ ताहे सो न छहिज्जइ ? ति। यदि अनादि है तो वह कभी छूटना नहीं चाहिये, [जो अणाइओ सो अनंताओ हवइ ति वयणा] क्योंकि यह कहा ... गया है कि 'जो अनादि होता है, वह अनंत होता है [जइ पच्छाजाओ ताहे कया जाओ ?] यदि बाद में उत्पन्न हुआ है तो कब उत्पन्न हुआ ? [कहं छुट्टिज्जइ ?] और कैसे छूटता है ? [तं मिच्छा] यह मत मिथ्या है, [लोए जीवा असुहकम्मबंधेण दुहं, . सुहकम्मबंधेण सुहं पत्ता दिसंति] क्योंकि लोक में जीव अशुभ कर्म-बंध से दुःख को ॥५७२॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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