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________________ ९३८ उत्तराध्ययनसूत्रे __छाया-परिपालितश्च दीर्घः पर्यायो वाचना तथा दत्ता । ... निष्पादिताश्च शिष्याः, श्रेयो मे आत्मनः कर्तुम् ॥१॥ इति गाथार्थः ॥२४९॥ क्रमयोग वर्णयितुं संलेखनाभेदान् प्रदर्शयतिमूलम्-बारसेव उं वालाई, संलेहुकोसिया भवे । संवच्छरमज्झिमिया, छम्माला यं जहनिया ॥२५॥ छाया-द्वादशैव तु वर्षाणि, संलेखना उत्कृष्टा भवति । संवत्सरं मध्यमिका, षण्मासांश्च जघन्यिका ॥२५०॥ टीका-'बारसेव उ वासाई' इत्यादिसंलेखना द्वादशैव वर्षाणि उत्कृष्टा भवति । संलेखना च-द्रव्यतः शरीरस्य, "परिपालिओ य दीहो परियाओ वायणा तहा दिण्णा । णिप्फा इया य सीसा सेयं से अप्पणो काउं ॥ १ ॥" अर्थात्-मुनिपर्याय मैंने बहुत समय तक पालितकी है। तथा मैं दीक्षित शिष्योंको भी वाचना दे चुका हूं एवं यथायोग्य शिष्य संपत्ति भी मेरी वर्धित हो चुकी है। अतः अब मेरा कर्तव्य है कि मैं अपना भी कुछ कर लू-इसी में मेरी भलाई है। अर्थात् सबसे अलहदा रह कर संलेखना धारण करने में ही मेरा हित है। ऐसा साधुको विचार कर पिछली अवस्थामें संलेखना धारण करना चाहिये ।। २४९ ॥ अब क्रमयोग को वर्णन करनेके लिये सूत्रकार संलेखनाके भेदोंको प्रकट करते हैं-'वारसेवउ' इत्यादि। ___ अन्वयार्थ (बारलवासाइं एव उक्कोसिया संलेहा भने द्वादश “परिपालिओ यदीहो परियाओ वायणा तहा दिण्णा णि फोइयाय सीसा सेयं मे अप्पणो काउं॥१॥" अर्थात् मुनि पर्याय में पाए। समय सुधी पास ४२ छ तथाई લિત શિને પણ વાચના દઈ ચૂક્યો છું અને યથાયોગ્ય શિષ્ય સંપત્તિ પણ મેળવી લીધેલ છે. આથી હવે મારૂં કર્તવ્ય છે કે, હું મારું કાંઈક કરી લઉં–આમાં જ મારી ભલાઈ છે. અર્થાત્ બધાથી અલાયદા રહીને સંલેખના ધારણ કરવામાં મારું હિત છે. આ પ્રમાણે સાધુએ વિચાર કરીને પાછલી અવસ્થામાં સંલેખના धारा ४२वी नये ॥ २४८ ॥ હવે ક્રમ વેગનું વર્ણન કરવા માટે સૂત્રકાર સંલેખનાના ભેદને પ્રગટ ... 3३ छ-" वारसेवउ" त्यादि। मन्क्याथ - वारसवासाई एव उक्कोसिया सलेहा भवे-द्वादशवर्षाणि एव
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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