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________________ ફૂટ उत्तराध्ययन सूत्रे कुर्यादित्यर्थः । तथा लाभालाभे - ओदनादे लभे, अलाभे च सन्तुष्टः सन् पिण्डपातं = पिण्डस्य =ओदनादेः पातः - पात्रे पतनं यस्मिन् भवति तत्, भिक्षाचर्यं चरेत्'आसेवेत ॥ १६ ॥ इत्थं पिण्डं प्राप्य यथा भुञ्जीत, तं प्रकारमाह मूलम् -- अलोले ने रसे गिद्धे, जिन्भादते अमुच्छिए । ने रसाए भुंजिज्जी, जैवणडाए महामुंणी ॥ १७ ॥ छाया - अलोलो न रसे गृद्धः, जिह्वादान्तः, अमूर्च्छितः । न रसार्थ भुञ्जीत, यापनार्थ महामुनिः ॥ १७ ॥ टीका- 'अलोले' इत्यादि - महामुनिः=अनगारः, अलोलः स्यात्, कुस्वादेऽनादौ प्राप्ते चपलचित्तो न आदि दोषों का परिहार करते हुए ( एसिज्जा - एषयेत् ) ग्रहण करे - अर्थात् अनेक घरों में भिक्षाचर्या करे । यदि वहां (लाभालाभम्मिलाभालाभे) ओदनादि भोजन का लाभ होवे अथवा नहीं होवे तो उसमें (संतु-संतुष्टः ) हर्षविषाद न करे और सन्तुष्ट चित्त होकर (पिण्डवायं चरे--पिण्डपातं चरेत् ) भिक्षाचर्या करें | भावार्थ-मुनि का कर्तव्य है कि वह शास्त्रमार्ग के अनुसार भिक्षावृत्ति के लिये भ्रमण करे और निन्दित कुलों में न जाकर अनिन्दित कुलों में जावे । वहां उसको जो कुछ भी निर्दोष अन्नपान : मिले उसी में सन्तुष्ट रहे । नहीं मिले तो विषाद नहीं करे ॥ १६ ॥ : मिला हुआ आहार किस प्रकार करे सो कहते हैं 4 'अलोले ' इत्यादि । अन्वयार्थ - ( महामुनी - महामुनिः) साधु (अलोले- अलोलः ) विरस एसिज्जा-एषयेत् श्रद्धणु ४रे, अर्थात् भने घरोभा मिक्षा उरे, ने त्यां लाभालाभम्मि - लाभालाभे मोहनाहि लोन्नती साल थाय अथवा न थाय तो तेमां 'संतुट्टे - सतुष्टः ष-विषाद न उरे भने संतुष्ट वित्त मनीने पिण्डवाय चरेपिण्डपातं चरेत् लिक्षायर्या रे. ભાવા—મુનિનુ કત્ય એ છે કે, શાસ્ત્રમાર્ગ અનુસાર ભિક્ષાવૃત્તિ માટે ભ્રમણ્ કરે, અને નિન્દ્રિત કુળામાં ન જતાં અનેિતિ કુળામાં જાય અને ત્યા એને જે નિર્દોષ • माहार पाणी भणे तेमां ४ सन्तोष भाने न भणवाथी विषाद न १२. ॥१६॥ ' મળેલા નિર્દોષ આહારનું ભાજન કઇ રીતે કરે એ કહે છે " अलोले " इत्यादि ।
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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