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________________ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३५ भक्तपानादौ रसलोलुपतानिवारणनिरूपणम् ६७९ स्यादित्यर्थः, तथा रसे गृद्धो न स्यात् सुरसे मधुरादौ प्राप्ते सति तत्राऽऽसक्तो न स्यादित्यर्थः। यतः-जिहादान्तः-वशीकृतः रसनेन्द्रियः, अमूच्छितः=रसमृद्धिवर्जितः, महामुनिः, रसार्थम् आस्वादसुखार्थ न भुञ्जीत, किं तु यापनार्थ-संयमयात्रा निर्वाहार्थं भुञ्जीतेत्यर्थः ॥१७॥ मानपूजादौ साधूनां किं कर्तव्यमित्याह-- मूलम्--अच्चणं रैयणं चैव, वंदणं पूर्वणं तंहा । इड्डिसकारसम्माणं, मसावि न पत्थए ॥१८॥ छाया--अर्चनां रचनां चैव, वंदनं पूजनं तथा। ऋद्धिसत्कारसम्मानं, मनसाऽपि न प्रार्थयेत् ।। १८ ॥ भोजन में चलचित्त न बने तथा (रले गिद्धे न सिया-रसे गृद्धः न स्यात्) मधुरादिक रस में आसक्त न बने । (जिन्भादंते-जिहादान्तः) रसना इन्द्रिय को अपने वश में करनेवाले और (अमुच्छिए-अमूच्छितः) रसगृद्धि को वर्जन करनेवाला वह महामुनि (रसहाए न भुंज्जिजारसाथ न भुञ्जीत) आस्वाद सुख के निमित्त भोजन करके केवल (जवणहाए-यापनार्थम्) संयमयात्रा के निर्वाह के अभिप्राय से ही आहार पानी करें। ___ भावार्थ-जो मुनिराज निर्दोष आहार पानी सामग्री का भोग करते हैं वे केवल संयम यात्रा के निर्वाह निमित्त ही करते हैं। रसास्वादन के लिये नहीं, इसी लिये उन्हें रस में अमृद्ध एवं अलोलुप होने की प्रभु की आज्ञा है ॥ १७ ॥ २५-क्याथ-महामणी-महामुनी साधु ये अलोले-अलोलः सुस्वार - नमा यसयित्त न मनन, तथा रसे गिध्धे न सिया-रसे गृद्धः न स्यात् भधुरा २समा मासत न मने. जिन्भादंते-जिहादान्तः २सन। छन्द्रियन पोताना शमा ४२॥२ मने अमुच्छिए-अमूछितः २सद्वि. ० ४२॥२ ते मडामुनि रसदाए न भुंज्जिज्जा-रसाथै न अँजित पवार सुमना निमित्त सोन न ४२di m जवणदाए-यापनार्थम् संयम यात्रा निकालना અભિપ્રાયથી જ આહાર પણ કરે. | ભાવાર્થ–જે મુનિજન નિર્દોષ આહાર પાણી સામગ્રીને ઉપભેગ કરે છે. તે કેવળ સંયમ યાત્રાના નિર્વાહ નિમિત્તે જ કરે છે, રસ આસ્વાદને માટે નહીં. આજ કારણે તેમને રસમાં અગ્રદ્ધ અને અલપ થવાની પ્રભુની આજ્ઞા છે. ૧૭
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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