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________________ उत्तराध्ययनस्त्रे मूलम्-भावाणुवाएण परिग्गण, उप्पायणे रक्खणसन्नियोगे । वए विओगे ये कह सुहं से, संभोगकोले य अतित्तिलौभे ॥९३॥ छाया-भावानुपाते खलु परिग्रहेण, उत्पादने रक्षणसन्नियोगे। व्यये वियोगे च क्व सुखं तस्य, सम्भोगेकाले च अतृप्तिलाभे॥९॥ टीका-सावाणुवाएण' इत्यादि भावानुपाते, परिग्रहेण भावविषये मूर्ध्वात्मकेन हेतुना उत्पादने रक्षणसन्नियोगे व्यये वियोगे च, तस्य व सुखम् , सम्भोगकाले च अतृप्तिलाभे सति क्व सुखं, इत्यन्वयः शेष व्याख्या पूर्ववत् ॥ ९३ ।। मूलम्--भावे अतित्ते य परिग्गम्मि , सत्तोवसत्तो न उवेई तुहि । अतुढिदोलणं दुही परस्सै, लोभाबिले आयइ अंदत्तं ॥९४॥ छाया-भावे अतृप्तश्च परिग्रहे, सक्तोपसक्तो न उपैति तुष्टिम् । अतुष्टिदोषेण दुःखी परस्य, लोभाविलः आदत्ते अदत्तम् ॥ ९४ ॥ टीका--भावे अतित्ते' इत्यादि भावे अतृप्तश्च परिग्रहे-परिग्रहविषये भावे सक्तोपसक्तस्तुष्टिं नोपैति, हिंसा करता है। तथा विविध प्रकारके उपायों द्वारा कितनेक जीवोंको यह परितापित करता है और कितनेक जीवोंको पीडा देता है ।।९२॥ 'भावाणु इत्यादि। भावमें जीवका अनुराग होने पर वह उसमें मूर्छात्मक परिग्रहमें फस जाता है। और इसी कारण वह उसके उत्पादनमें रक्षणमें एवं उसके उपयोगमें तथा व्यय एवं वियोगमें सुखी नहीं हो सकता है। इसी तरह उपभोग कालमें भी यथावत् तृप्तिकी प्राप्ति नहीं हो सकनेसे वह सुखी नहीं होता है ॥९॥ ઉપા દ્વારા કેટલાક એને એ પરિતાપિત કરે છે. અને કેટલાક ને પીડિત કરે છે. તેરા "भावाणु" त्या ! ભાવમાં જીવન અનુરાગ હોવાથી તે એમાં મૂછત્મક પરિગ્રહથી ઝડાઈ જાય છે. અને એ જ કારણે તે એના ઉત્પાદનમાં, રક્ષણમાં અને તેના ઉપ ગમાં સુખી બની શકતો નથી. આ પ્રમાણે ઉપભોગ કાળમાં યથાવત્ત પ્રાપ્તિ -- થવાથી તે સુખી થઈ શકતું નથી. છેલ્લા
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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