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________________ ४७१ प्रियदर्शिनी टीका अ० ३२ प्रमादस्थानवर्णनम् परित्यज्या शेषाः अन्ये द्रव्यादि संगाः सुखोसराः अनायासपरित्यज्याः, भवन्त्येव । तत्र दृष्टान्तमाह-'जहा' इत्यादि । यथा येन प्रकारेण, महागागरं-स्ययम्भूरमणम् , उत्तीर्य-उल्लद्ध्य, गङ्गासमानाऽपि गङ्गातुल्याऽपि, नदी सुखोत्तरा-अनायासोल्लद्ध्या भवति । शूद्रनदी तु आस्ताम् । सर्वसंगानां रागरूपत्वे तुल्येऽपि, स्त्रीसङ्गानामेव प्रधान्यात् , तत्परिहारेऽन्ये सर्वे विषयसंगाः सुतरां परिहार्या भवंतीति भावः॥१८॥ हो जाता है सो दिखलाते हैं --'एएय' इत्यादि। अन्वयार्थ--(एएय संगे-एतान् संगाल ) इन स्त्री सहवास युक्त निवास आदि संबंधोंका (समइक्कमित्ता-समतिक्रम्य) परित्याग करने पर (सेसा सुहत्तरा चेव हवंति-शेषाः सुखोत्तराः चैव भवन्ति) अन्य द्रव्यादिक संबंधोंका परित्याग सहज होता है। ( जहा महासागरमुत्त रित्ता-यथा महासागरं उत्तीर्य) जैसे स्वयंभूरभगको उलंघन करनेवाले व्यक्तिके लिये (गंगासमाणा अवि नई सुहुत्तरा हवंति-गंगालमाना अपि नदी सुखोत्तरा भवति) गंगाके समान विशाल नदी भी अनायास रूपसे पार करने योग्य हो जाती है। क्षुद्र नदीकी तो बात ही क्या है। समस्त संबंधोंमें रागरूपता तुल्य होने पर भी स्त्री संगमें प्रधानता होनेसे उसके परिहार होने पर समस्त विषयसंगका परिहार हो जाना सहज है। ____ भावार्थ-स्वयंभूरमणको पार करनेकी सामर्थ्य रखनेवाले व्यक्तिको गंगा जैसी नदियोंको पार करना कोई बड़ी बात नहीं है। इसी प्रकार जिन महात्माओंने स्त्रियोंके दुस्तर संगका परित्याग कर दिया है थनय छे. मे मतापामi मावे छे-'ए एय” त्याह! अन्वयार्थ-ए एय संगे-एतान् संगान् २॥ स्त्री सास युत निवास मा समधाना समइक्कमित्ता .. समतिक्रम्य परित्या ४२वाथी सेसा सुहुत्तरा चेव हवंति-शेषा सुखोत्तराचेव भवन्ति अन्य द्रव्याहि समधानी परित्याग सहारा सनी लय छे. जहा महासागरमुत्तरित्ता-यथा महासागरं उत्तीर्य म स्वयंभू २म नु धन ४२वापाणी व्यतिना भाटे गंगासमाणा अवि नई सुहुत्तरा वंतिगंगासमाना अपि नदी सुखोत्तरा भवन्ति गाना समान विशण नही ५५] मनाયાસરૂપથી પાર કરવા યોગ્ય બની જાય છે, તો પછી નાની એવી નદીની તે વાત જ કયાં રહી. સમસ્ત સંબંધમાં રાગરૂપતા તુલ્ય હોવા છતાં સ્ત્રી સંગમાં મુખ્યતા હોવાથી તેનું નિવારણ થતાં સમસ્ત વિષયસંગને પરિહાર થઈ જવો સહજ છે. ભાવાર્થ–સ્વયંભૂરમણને પાર કરવાનું સામર્થ્ય રાખવાવાળી વ્યક્તિને ગંગા જેવી નદીને પાર કરવી કેઈ મોટી વાત નથી. આ પ્રમાણે જે
SR No.009355
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1960
Total Pages1039
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size75 MB
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