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________________ प्रियदर्शिनी टीका गा ४१-४२ शिष्य कर्तव्योपदेश २५३ रस्माभिर्भवन्तः शिष्यश्च पीडनीयाः ? इति निवेद्य भक्त प्रत्याख्याय स प्राणरहितो जात । एव शुद्रमविशिष्यवत् साधुवुद्धोपघाती न भवेत् ॥ ४०॥ आचार्य कुपिते शिप्यकर्तव्यमाह-- मलमू-आयरिय कुवियं नच्चा, पत्तिएंण पसायए।। विज्झविज पजलीउडो, वएंज्ज न पुणुत्ति यं ।।४।। छाया-आचार्य कुपित ज्ञात्वा, प्रीतिकेन प्रसादयेत् । विध्यापयेत् प्राञ्जलिपुटः, वदेत न पुनरिति च ।। ४१ ॥ टोका-'आयरिय इत्यादि । शिष्यः केनचित् सापराधेन आचार्य कुपितम्-जपरितुष्ट ज्ञात्वा प्रीतिकेनभीतिरेव प्रीतिक तेन-मीतिजनकेन विनयभावेन यद्वा-'प्रतीतिकेन' इतिच्छाया, प्रतीतिकन-विश्वासजनकेन पाक्येन त प्रसादयेत् प्रसन्न कुर्यात् । 'प्रीतिकेन' कहा तक कष्ट दिया जाय, अतः यही सर्वसुदर मार्ग है कि सलेखना धारण करलो जाय । ऐसा कह कर उन्होने भक्तप्रत्याख्यान कर दिया और कुछ समय के बाद वे समाधिमरण को प्राप्त कर अपना कल्याण किया। इस कथा से शिष्य को यह शिक्षा लेनी चाहिये कि क्षुद्रमति शिष्य की तरह वह गुरु महाराज का प्राणप्रहारी न बने ॥४०॥ आचार्य महाराज के कुपित होने पर शिष्य का क्या कर्तव्य है सो कहते है-'आयरिय' इत्यादि अन्वयार्थ-शिष्य (कुविय आयरिय नचा-कुपित आचार्य ज्ञात्वा। जब यह समझे कि आचार्य महाराज कुपित है उस समय वह (पत्तिएण पसायए-प्रीतिकेन प्रसादयेत्) प्रीतिजनक-विनयभाव से अथवा સવ સુદર માર્ગ છે કે, સલેખણું ધારણ કરી દઉ એવું કહીને તેઓએ ભક્ત પ્રત્યાખ્યાન કરી લીધું અને થોડા સમય બાદ સમાધી મરણને પ્રાપ્ત કરી પિતાન કલ્યાણ કર્યું આ કથાથી શિષ્ય એ શિક્ષા લેવી જોઈએ કે, ક્ષુદ્રમતિ શિષ્યની भातपाताना गुरु महाशान प्राणु २ना२ नमन ॥४०॥ - આચાર્ય મહારાજના કોધિત થવાથી શિષ્યનું શું કર્તવ્ય છે તે કહેવામાં भाव छ -आयरिय-त्यादि स-क्याथ----शिष्य कुविय आयरिय नच्चा-कुपित आचार्य ज्ञात्वा न्यारे से सभा १ माया महा२।४ एपित लेते समय त पत्तिएण पसायए-प्रीतिकेन प्रसादयेत् प्रितिनि-विनय साथी अथवा विकास न ४यथा ते प्रसन्न
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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