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________________ - - उत्तराध्ययनसमें इत्यत्र रूढया नपुसकत्सम् ।प्राललिपुटाकताअलिः सन् विध्यापयेत् कथचिदुत्थित कोपरहि प्रशमयेत् । च-पुन. 'न पुनरेर करिष्यामिक्षन्तव्योऽयमपरायः' इति देत् । मानसिक-कायिक वाचिकोपाय गुरुः प्रमादनीय इति भारः ॥४१॥ अथ येन गुरोः कोप ण्व नोत्पयेत तमुपायमाहमूलम्-धम्मज्जिय च ववहार, बुढेहायरिय सया। तमायरतो वर्वहार, गैरह नाभिगच्छइ ॥४२॥ छाया-धर्माणितश्च व्यवहारः युद्धः आचरितः सदा। तमाचरन व्यवहार, गर्दा नाभिगच्छति ॥४२॥ टीका-'पम्मज्जिय' इत्यादि- . यत्तदोनित्यसम्बन्धाद् य. धर्मार्जिता-धर्मेण क्षान्त्यादिना अर्जितः-उपाजित', च-पुनः सदा-सर्वकाल बुद्ध तत्त्वविद्भिः आचरित =सेवितः, व्यवहार = -विश्वासजनक वाक्य से उन्हें प्रसन्न करे। और (पजलीउडो विज्झविज्ज -प्राञ्जलिपुटः विध्यापयेत्) दोनो हाथ जोड़कर उनकी कयचित् उत्थित कोपाग्नि को वुझावे । उस समय वह ऐसा (वएज्ज-चदेत्) कहे कि (न पुणुत्ति य-न पुनरिति च) हे गुरु महाराज अब ऐसा व्यवहार नहीं करने का भाव है अतः अब यह मेरा अपराध आप क्षमा करें। मन से वचन से एव काया से जैसे भी बने उस प्रकार के उपायों से गुरु महाराज को प्रसन्न कर लेना चाहिये ॥४१॥ अब सूत्रकार ' गुरु महाराज को कोप ही न उत्पन्न हो सके ऐसा उपाय बतलाते है-'धम्मज्जिय इत्यादि. अन्वयार्थ जो (धम्मज्जिय-धर्मार्जितः) उत्तम क्षमा आदि धर्मा उरे पजलिउडो विज्झ विज्ज-प्राञ्जलिपुट विध्यापयेत् भने मन्ने डाय नान तेभनी ४५थित् अस्थित पानिने मुआवे से सभयत मेषु वएज्ज-वदेत् 33, न पुणुत्ति य-न पुनरिति च शुरु भहा हुगेयु ४६ नडी ३३ माथा હવે આપ આ મારે અપરાધ ક્ષમા કરે મન વચન અને કાયાથી જેવું પણ બને એ પ્રકારના ઉપાયથી ગુરુ મહારાજને પ્રસન્ન કરી લેવા જોઈએ છે ૪૧ હવે સૂત્રકાર “ગુરુ મહારાજને કોપજ ન ઉત્પન્ન થાય” એ ઉપાય मता छ-धम्मज्जिय ध्त्याल सन्क्याथ-२ धम्मज्जिय-धर्मार्जितम् उत्तम क्षमा मा6ि पीथी मत ४२
SR No.009352
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1959
Total Pages961
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size28 MB
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