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________________ सुबोधिनी टोका. १३२ भदेवस्य पुत्र पवनीवप्रदेशिरजवर्णनम इच्छति मानुष्यं लोक शीघ्रमागन्तुं नैव खलु शक्नाति-१ अधुनोरपन्नकः नरकेषु नैरयिकः स ग्वलु तत्र महन्दतां वेदनां बेदयन् इच्छेन मानुष्यं लोक शीघमागन्तुं नैव खलु शक्नोति । २ अधुनोपपन्न को नरकेषु नैरयिका नरकपालैः भूयो भूयः समधिष्ठीयमानः, इच्छति मानुष्यं लोकं शोधमागन्तुं आदि विशेषणों वाले पौत्र हो (से ण इच्छइ माणुसं लोग हबमागच्छित्तए णो चेव णं संवाएइ. हवमागच्छित्तए) वे तुम्हारे आर्यक ! यद्यपि इय मनुष्यलोक में वहां से जल्दी से जल्दी आना चाहते हैं, परन्तु वे वहां से आने के लिये असमर्थ हैं। (चउहि ठाणेहि पासी ! अgणोक्षणए नरएस्सु नेरइए इच्छई, माणुमं लोगं हव्वमागच्छित्तए जो चेवण संचाएइ) क्यों की हे प्रदेशिन् ! अधुनोपपन्नक नारक चार कारणों को लेकर मनुष्यलोक में शीघ आने की इच्छा करता हुआ भी वह वहां से शीघ्र नहीं आ सकता है (१अहुणोववन्नए. नरएसु लेरईए-से ण तत्थ महब्भ्य वयणं वेदमाणे इच्छेज्जा माणुस्सं लोग धमागाच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ) वे चार कारण इस प्रकार से हैं--अधुनोपपन्नक नैरयिक नरकों में बहुत बडी वेदना का अनुभव करता है, अतः वह चाहता है कि मैं मनुष्य. लोक में उत्पन्न हो जाऊ-परन्तु वह वहां से निकलने में सर्वथा असमर्थ होता है-वहां नहीं आ सकता है ? (२अहुणोवबन्नए नरपसु नेण्डए नरय ते माया तमे Ue xid को विशेष पोत्र छ. (से ण इच्छई माणुसं लोग हच्चमागच्छिनए जो चेव णं मचाएइ. हवामागच्छन्तए) मा ते આર્યક છે કે મનુષ્યલેકમાં ત્યાંથી જલદીમાં જલદી આવવા ઈચ્છે છે, પરંતુ તેઓ त्यांची भाषामा असमर्थ छ. (चउहि ठाणेहि पएसी! अहंणोववण्णए निरएसु नेरहए इच्छड, माणुमं लोग हममागच्छिनए णो चेव ण संचाएइ) કેમકે હે પ્રદેશન ! અને પપન્નક નારક ચાર કારણોને લીધે મનુષ્યલેકમાં જલદી मावदानी ४२छ। धरावे छ छतां ते त्यांची ही मावी शत नयी. (१ अहुणोववन्नए, नरएसु नेरइए से ण तत्थ प्रहन्भूयं वैयण वेदेमाणे इच्छेज्जा माणुस्स लोग हवंमागच्छित्तए णों चेव ण संचाएइ) ते यार अ२॥ २॥ પ્રમાણે છે. અધુને પપન્નકનરયિક નરકેમાં તીવ્ર વેદનાને અનુભવે છે એથી તે ઇચ્છે . છે કે હું મનુષ્યલેકમાં જન્મ પામું પરંતુ તે ત્યાંથી નીકળવામાં સર્વથા અસમર્થ डाय छ, मी ते आवी शो नथी १. (२ अहुणोववन्नए नरएस नेरइए परयपाले हिं भुज्जो भुज्जो समहिटिज्जमाणे इच्छइ, माणुस लोग हब्वमाग
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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