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________________ १९४ राजमनीयसूत्र 7 शिन् ! पुरुषस्य क्षणमपि एतमर्थ प्रतिशृणुयाः ?, नायमर्थः समर्थः, कम्मात् खलु ?, यस्मात् खन्नु भदन्त ! अपराधी खलु मन पुरुषः, एवमेव प्रदेशन ! तत्रापि आर्यवत् इहैव श्वेतविकायां नगर्याम् अधार्मिको यावत नो सम्यक् कंग्रवृत्तिमावर्तयत स खलु मम वक्तव्यतया सुबहु यावत् उपपन्नः, तस्य खलु आर्यकस्य त्वं नप्तृकोऽभवः, उम्रः कान्तः यावद् दर्शनतया, स खलु इच्छति मनुष्यं लोक शीघ्रमागन्तु नैव खलु शक्नोति शीघ्रमागन्तुम्, चतुर्भिः स्थानः प्रदेशिन्। अधुनापपन्नकः नरकेषु नैरयिककि पड़ गया हूं । (तस्स णं तुम पएसी । पुरिमस्म खणमत्रि एवम पाडणेजामि ? ) तो हे प्रदेशिन् ! तुम क्या उस पुरुष की बात की थोडी सी भी देर के लिये स्वीकार कर लोगे ? (गो हई समहं) हे भदन्त ! यह अर्थ समर्थ नहीं है अर्थात् उसकी यह बात स्वीकार नहीं की जावेगो (जम्हा) क्योंकि (णं सं स ते 1 अवराही णं से पुरिसे) है भदन्त 1 वह पुरुष अपराधी है। (एवमेव पएसी ! तत्र वि अज्जए होथा) तो इसी तरह से हे प्रदेशिन् ! तुम्हारे भी आर्यक हुए हैं । (एवामेव इत्र सेयचिया घरीए अवम्मिए णो, सम्म कर भर विपित्तह) उन्होंने इस श्वेतांबिका नगरी में अपना जीवन अधार्मिक बनाया है, तथा प्रजाजन से प्राप्त टेक्स से उनका उन्होंने अच्छी तरह से पालनपोषण नहीं किया है। (सेणं अहं वत्तवाए सुबह जब उन्नो ) इस तरह मेरी चव्यता के अनुसार वे अनेक अतिमलिन पाप कर्मों का अर्जन करके यावत् किमी एक नरक की पर्याय से उत्पन्न हुए हैं । (तस्स णं अजगरसं तुम नुए हत्था, इट्ठे कते जाव पासणयाए ) उन्हीं आर्यक के तुम इष्ट कान्तं ( तस्स णं तुमं पएसी । पुरिसस्स वणमवि एयम पडिसुणेज्जासि १) તે હૈ પ્રદેશિન ! શુ' તમે તે પુરુષની વાતને ઘેાડા વખત માટે પણ · સ્વીકારી લેશે? (णो इट्ठे . समट्ठे ) डे लहंत ! आ अर्थ समर्थ नथी भेटते तेनी मा वात zals:zahi »nað alg. (1771) dhì (q°Ã¤Â ! xxâ q'à gâà) हे अदृत! ते पुरुष अपराधी है. (एवामेत्र पएसी ! तत्र वि अज्जए होत्या) तो मा प्रभाणे ४ हे अद्देशिन तभाश भाटे पशु आर्य, थयां छे. (एवामेव इहे सेविया जयरी अधम्मिए णो सम्म करभावित पत्ते ) तेम પાંતાનુ જીવન શ્વેતાંબિકા નગરીમાં અધાર્મિક રીતે પસાર કર્યું... છે તેમજ પ્રજાજના पासेथी ४२--प्रसून 'उरीने पशु तेभनु सारी पेठे - पोषणु यु' नथी तन्वाए सुबहु जाव उववन्नो) मा प्रभा भारा प्रथम भु પાપકર્માનુ અર્જન કરીને યાવત્ કોઇ એક નરકમાં નારકની પર્યાયથી જન્મ પામ્યાં છે. ( तस्स ण' अन्जंगस्स तुमं पातुए होत्था, इहे कंते जात्र पासणयाए ) ( से णं अम्ही तेभणे घशु : A
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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