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________________ १९६ राजश्री सूत्रे नैव खलु शक्नोति । ३ अधुनोपपन्नकः नरकेषु नैरयिकः निरयवेदनीये कर्मणि अक्षीणे अवेदिते अनिर्जिणे इच्छति मानुष्य लोक शीघ्रमागन्तु ं नैव खल्लु शक्नोति । ४ एवम् अधुनोपपन्नको नरकेषु नैरयिको निरयाऽऽयुपि कर्मणि अक्षीणे अवेदिते अनिर्जीर्ण इच्छति मानुष्य लोक शीघ्रमागन्तुं नैव खलु नीति शाघ्रमागन्तुम्' इत्येतैश्चतुर्भिः स्थानैः प्रदेशिन् ! अधुनोपपन्नका पालेहिं भुज्जो भुज्जो समहद्विजमाणे इच्छ, माणुसे लोग हन्त्रमागच्छितर नो चेवणं संचाएइ) अधुनोपपन्न नारक नरकों में परमाधार्मिकरूप नरकपालों द्वारा बार बार आक्रम्यमाण होता हुआ यह चाहता है कि मैं मनुष्यलोक में शीघ्र उत्पन्न हो जाऊं, परन्तु वह मनुष्यलोकमें शीघ्र उत्पन्न नहीं हो मकता है २ (३अणोववन्नए नरएस नेरइए निस्यवेग्रणिसि कम्मंनि अवखीर्णसि अवेइयंसि अनिज्जिन्नंसि इच्छइ माणुम लोग हन्यमागच्छित्तए णो चेवण ं संचाएइ इंत्रमागच्छित्तए) अधुनोपपन्नक नारक नरक में नरकभोग्य अशावेदनीय कर्म के अक्षीण होने पर, अननुभूत होने पर एवं अनिर्णि नाश होने पर, मनुष्यलोक में आनेका अभिलाषी होता हुआ भी नहीं आ सकता है३ (४ एवं नेरयाउसि अक्ग्बीणे अइए अणिज्जिणेइच्छेज्जा माणुस्स लोग हन्त्रमागच्छितए नो चेवणं संचाएइ) इसी प्रकार चौथा कारण यह है कि उसके नरकसंच धी वेदन नहीं हो चुका है, तथा नारक आयु की निर्जरा भी नहीं हुई है इसी आयु क्षीण नहीं 'हुआ हैं, उसका कारण से वह मनुष्यलोग में आने को इच्छा करता हुआ भी नहीं आ सकता है। (इच्चेच्छित्तए नो चेत्र ण संचाएइ) अधुनापन्नः नार नारीभां परमाधार्भि ४३५ નરકપાલે વડે વાર વાર આકંમ્યમાણુ થઇને તે એમ ઇચ્છે છે કે હું મનુષ્યલેાકમાં જી उत्थन्न थाङ' परंतु ते मनुष्यखेोभां ही उत्पन्न थ शतो नथी, २. (३ अरुणोचवन्नए नरएस नेरइए निरयवेयणिज्जसि कम्मोंस अक्खीणंसि अवेयंसि अग्निज्जिन्नंसि इच्छइ माणुस लोगं हवमागच्छित्तए णो चेव णं संचाएइ हन्त्रमागच्छित्तए) मधुनापयन्न नासु नरम्भां लोभ्य अशात वेहनीय भक्षी - હાવાથી અનનુભૂત હાવાથી અને અનિણુ હાવાથી મનુષ્યલેાકમાં આવવાની અભિલાષા राजे छ छतांगे ते त्यांथी मुक्त था राहतो नयी. अने (४ एवं नेरइयाउंसी अक्खीणें अवेइए अणिज्जिणे इच्छेज्जा माणुस्मं लोगं हन्यमागच्छित्तए नो चेत्र णं संचाएइ) मा प्रभा थोथु अरशु मा प्रभाहो नरम्समधी તેનું આયુ ક્ષીણ થયું નથી, તેનુ વેદન થયુ' નથી "મજ નારક આયુની નિર્જરાપણ થઇ નથી એથી જ તે મનુષ્યલેાકમાં આવવાની ઇચ્ડ ધરાવે છે છતાંએ આવી
SR No.009343
Book TitleRajprashniya Sutra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1966
Total Pages499
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size36 MB
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