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________________ সমীহ भिरामं मुगन्धपरगन्धिनं गन्धवर्तिभृतं दिव्यं सुरवराभिगमनयोग्यं कुर्वन्ति. कारयन्ति च कृत्या कारयित्वा च क्षिपमेव उपशाम्यन्ति उपशमः यत्रैव श्रमको भगवान महावीरः तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागम् श्रमणं भगवन्नं महातारं त्रिन्त्रः यावद वन्दित्वा नमस्यित्वा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिकात आम्र शालवनात् चैत्यात् प्रतिनिष्कामन्ति, प्रतिनिष्क्रम्य तया उत्कृष्टया यावत् व्यति. धूवमवमधनगधद्ध धामिराम सुगधवरगंधयहिभूयं दिवं मुरवरामिग नगजोग्ग करे ति य कारवें ति य) वरसा करके कालागुरु, प्रबर कुन्दुरून एव तुरुष्करूप धूपों को जो मघमघायमान-अनिशयित-गंध है उसके फैलाव से रमणीय बना हुआ वह स्थान श्रेष्ठ मुगध से सुगंधित होकर गंध को गुटिका जैसा बन गया। इस प्रकार से उन्होंने स्वयं उस स्थान को दिव्य प सुरवरों के अभिगमन योग्य बनाया और बनवाया (करेना य कारवेना य खियामेव उमाम ति) इस तरह करके और करा करके वे अपनी कर्तव्य क्रिया से शीघ्र ही शान्त हो गये (उवमामित्ता जेगव समणे भगवं महावीरे तेणेन उचागच्छति) उस कार्य से निकृन कर फिर वे जहां पा श्रनग भगवान महावीर थे वहां पर आये (तेणे उपा गच्छित्ता सण भग। महावीर तिवखुत्तो नाव वदित्ता नना समणस भगवओ महावीरस्थ अंतियाओ अवसालसणाओ चेह पाओ पडिनिस्वमते) वहां आकर के उन्होंने श्रमग भगवान् को तीन बार पावत् यदना की ४ (वासित्ता कालागुपयाकुंदुरुहरुकवानववध शामिन सुगंध वर गंधिय गंधवभूियं दिव्यं मुरबरामिगमग नोगग करेंति य कारवे ति य) વસાવીને કાલાગુરુ, પ્રવર કુંટુરુષ્ક અને તુક રૂપ ધૂપની સુવાસથી તે સ્થાન મઘમઘાયમાન-અતિશય ઉગ્રસુગંધના પ્રસારથી રમણીય તેમજ ઉત્તમ સુગંધથી સુગંધિત થઈને ગંધની ગુટિકા જેવું થઈ ગયું. આ પ્રમાણે તેમણે પિતે સ્થાનને દિવ્ય અને देवता माना अलिगमन भाटे याथ मनावी हाधु (करेत्ता य कारवेत्सा य खिदा. मेव उत्रसामति ) मा प्रमाणे ते आम ५२ ४शन तभर जीतमानी. पाथी पा४२२१वीन तमाथे पोतानु आम १५ हाधु(उवसामित्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति) मा मथी परवारीने तमो न्यो श्रभा भगवान महावीर तो त्या माव्या. (तेणे व उपगच्छित्ता समण भगवं महावीर तिकखुत्तो जाव वंदित्ता नम सित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिग्राओ अंवसालवणाओ चेइयाओ पडिनिकावमति) त्यो भवीन तेभारे श्रभारी ભગવાન મહાવીરની ત્રણ વખત યાવતુ વન્દના કરી નમસ્કાર કર્યા. વંદના અને *
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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