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________________ ૧૭૮ राजप्रश्नीयसूत्र पद्मपुण्डरीकहूदस्तत्रैव उपागच्छन्ति, उपागत्य हुदोदकं गृह्णन्ति, गृहीत्वा यानि तत्र उत्पलानि यावत् शतसहस्रपत्राणि तानि गृह्णन्ति गृहीत्वा यत्रव हैमवते. रवतानि वर्षाणि यत्रैव रोहिता-रोहितांशा-सुवर्णकूला-रूप्यकूलाः महानद्यस्तत्रैव उपागच्छन्ति, सलिलोदकं गृह्णन्ति, गृहीत्वा उभयतः कूलमृत्तिकां गृह्णन्ति, गृहीत्वा यत्रैव शब्दापातिविकटापांतिपर्याया वृत्तवैतादयपर्वतास्तत्रैव उपागसहिसिद्धत्थए गिहाति) तथा समस्त ऋतुओं के सुन्दर पुष्पों को, समस्त गंध द्रव्यों को एवं सर्वोषधियोको एवं सिद्धार्थकों को लिया (गिण्डित्ता जेणेव पउमपुंडरीयदहे तेणेव उवागच्छति) फिर वे वहां से इन सब को लेकर जहां पा एवं पुण्डरीकहूद था वहां पर आये-(उवागच्छित्ता दहोदगं गेहति गेण्डित्ता जाई तत्थ उप्पलाई जाच सयसहस्सपत्ताई ताई गेण्डति, गेण्हित्ता जेणेव हेमवयएरवयाई वासाई जेणेव रोहियरोहियंसा खुवणं कूल-सप्पकूलाओ महाणईओ तेणेव उवागच्छंति) वहां आकरके उन्होंने उन हूदों से उदक भरा, उदक भरकर फिर उन्हो ने वहां पर जितने भी उत्पल यावत् शतसहस्रपत्रवाले कमल थे उन सयको लिया इन सयको लेकर फिर वे जहां हैमवत और ऐरवत क्षेत्र थे, जहां रोहित, रोहितांसा, सुवर्णकूला एवं रुप्यकूला नाम की महानदियां थीं वहां पर आये (सलिलोदगं गेण्हति) वहां आकर उन्होंने वहां से सलिलोदक (जल) भरा, (गेण्हिचा भयओ कूलमटियं गिण्हति) भरकर फिर उन्होंने वहां से दोनो तटों की मृत्तिका ली, (गिण्डित्ता जेणेव सदावइ बियडावइ परियागी बवेयपव्वया तेणेव गिहति) तेभ सतुयाना सुदर पुष्पाने, स मधद्रव्यान भने सोषिधिमान भने सिद्धार्थ ने elai. (गिहित्ता जेणेव पउमपुंडरीयदहे तेणेव उवागच्छति) પછી તેઓ ત્યાંથી આ બધી વસ્તુઓને લઈને જ્યાં પધ અને પુંડરીક સુદ-ધર हता, त्यां गया. (उवागच्छित्ता दहोदगं गेहति गेण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाइ जाव सयसहस्सपत्ताई ताई गेहति, गेण्हित्ता जेणेव हेमवयएरवयाई वासाई जेणेव रोहियरोहियसा सुवष्णकूल-रुप्पकलाओ महाणइओ तेणेव उवागच्छंति) त्यां न तेभो तेहीमाथी मयु: Hशन पछी भये ત્યાં જેટલા ઉત્પલે-ચાવત શતસહસ પત્રવાળા કમળ હતાં, તે સર્વ લઈ લીધાં ત્યારબાદ તેઓ જ્યાં હૈમવત અને ઐવિત ક્ષેત્ર હતાં જ્યાં રોહિત, રેહિતાંસા, सुवर्षदा भने सुरुभ्यता नमिनी महानही ती त्यां गया. (सलिलोदगं गेहंति) त्यो पचान तभो तेभांथी सलिमयु. (गेण्डित्ता उभयओं कूलमटिय गिह ति) सरीने पछी तभी त्यांथी मन्ने नारामानी भाटी सीधी. (गिण्हित्ता
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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