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________________ ૨૪ राजप्रश्रीयसूत्रे , श्रमण भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति वन्दिता नमस्त्विा एवमवा. दीत् अहं खलु भदन्त । ग्रर्याभो देवः किं भवसिद्धिः श्रभवसिद्धिका ? सम्यग्दृष्टिः मिथ्यादृष्टिः परीतसंसारिकः अनन्त संसारिकः ?, गुलमबोधिकः दुर्लभयोधिकः ? आराधको विराधकः ?, चरमोऽचरमः ? सूर्या । इति श्रमणी भगवान महावीरः सूर्याभं देवमेवमवादीत् सूर्याभ ! त्वं खलु भवसिद्धिको नो अभवसिद्धिकः ? यावत् चरमो नो अवरमः ॥ ०३१ ॥ धर्मोपदेश सुनकर (निसम्म) और उसे हृदय में अवधारण कर ( जाव हियए उठाए उहेंड़, उट्टित्ता समण भगवं महावीरं वेदह, नगर) हृष्ट हुआ यावत् तुष्टहृदय बाला हुआ और फिर वह स्वयं अपनी उत्थान से उठाउद कर उसने श्रमण भगवान महावीर को बन्दना की नमस्कार किया. (वंदिता नर्मसित्ता एवं वयासी) बन्दना नमस्कार कर वह फिर उनसे इस प्रकार कहने लगापूछने लगा (अहं णं भंते सूरिया देवे किं भवसिद्धिए अवद्धि) हे भदन्त में सूर्याभदेव क्या भवसिद्धिक हू' अथवा अभवसिद्धिक हूं ? (सम्मट्टी मिच्छा दिट्ठी) सम्यकदृष्टि या मिध्यादृष्टिहं ? (परित्तसंसारिए अनसारिए) परीत संसारिक हूं? या अनन्तसंसारिक हूं ? (सुलभ बोहिए दुमयोहिए) गुलबोधिक हूं ?गा दुर्लयोषिक हूं (आराहए विरार) आराधक है या विरावक हू ? (चरिमे अचरिमे) चरम हू या अचरम हूं ? ( दूरियामा समणे भगवं महावीरे सूरियाभं देवं एवं वयासी) हे इस प्रकार से सूर्याभ देव को संबोधित करके श्रम भगवान् महावीर ने उस सूर्याभ देव से ऐसा चासेथी धर्मोपदेश सांलणीने (निसम्म ) अने तेने हृदयमां धार ने ( तुङ जाब हियए उठाए, उठेड़, उहित्ता समणं भगवं महावीरं बंदर नमसइ) હૃષ્ટ થયા, યાવતુ તુષ્ટ હૃદયવાળા થયે અને તે પેાતાની જ ઉત્થાનશકિત વડે ઊભે थने तेषु श्रभषु भगवान महावीरने वहन ने नमा२ . ( वंदित्ता नर्ममित्ता एवं व्यासी) ने वहना तेभन नमस्कार श्रीने तेथेोश्रीने या प्रभा विनंती ४२तां पूछना साभ्येो है (अहं णं संते सुरिया देवे किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए) हे बहंत! हुं सूर्याअहेव शुं लवसिद्धि छुडे लवसिद्धि (सम्म दिट्टी मिच्छा दिट्ठी) सभ्य दृष्टि छु ष्ठे भिथ्या दृष्टि ? (परित संसारिए अनंत संसारिए) परीत, संसारिष्ट छु' टु ग्मनंत सांसारिक छ ? ( सुलभवोहिए दुल्लभाहिए ) सुसमणीसिलोधि ? ( आराहए विराहए ) मारा विशेष छु? (चरिमे अचरिमे) गरम छु म छु ? (मुरियामाइ समणे भगवं महावीरे सुरियामं देव एवं वयासी) त्यारे 'हे सूर्याल ! या प्रमाणे सूर्यासदेवने सोधीने श्रभयु
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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