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________________ सुबोधिनी टीका. सू. ३१ सूर्याभस्य भगवसिध्यादिप्रश्नोत्तरश्च २३३... मूलम् ---तएणं से सूरियाभे देवे लसणस्त भगवओ महावीर स्स अंतिए धम्म सोचा निसम्म हटुतुटु जाब हियए उटाए उट्टेइउद्वित्ता समणं भगवं महावी वंदइ णमंसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-अहं णं भंते ! सूरिया देवे किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए ? सम्मविटी मिच्छादिट्टी ? परित्तसंसारिए अणंतसंसारिए ? सुलभबो हिए दुल्लभबोहिए ? आराहए विराहए ? चरिले अचरिमे ? सूरियाभाइ समणे भगवं महावीरे सरियामं देवं एव वयासी-सरियामा ! तुम णं भवसिद्धिए, जो अभवसिद्धिए, जाव चरिमे णो अचरिमे ॥ स. ३१ ॥ ___छाया-ततः खलु स मूर्याभो देवः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्ति के धर्म श्रत्वा निशम्य हृष्टतुष्ट यावद् हृदयः उत्थया उत्तिष्ठति, उत्थाय थी और जिसका दूसरा नाम अर्धमागधी भाषा था-ऐसी अर्धमागधी भाषा से अर्हन्त उपदेश देते हैं-यह सब पाठ यहां यावत् पद से गृहीत हुआ है। इस पाठका इस प्रकार का अर्थ औपपातिक सूत्र के ५६ वें सूत्र में किया गया है. धर्मकथा और उसका प्रकार यह सब विषय औपपातिक सूत्र से यहां ग्रहण करना चाहिये. इस प्रकार ऋपि आदि की परिषदा श्री महावीर प्रभु से कथित धर्मोपदेश सुनकर जिस दिशा से आई थी. उसी दिशा की ओर पीछे चली गई । सू. ३०॥ 'तएणं से सूरियाभे देवे' इत्यादि । सूत्रार्थ---(तएणं) इसके बाद (मूरियाले देवे ) वह सूर्याभ देव (समण. स्स भगवओ महारीरस्स अंतिए धम्म सोचा) श्रमण भगवान महावीर से અહત ઉપદેશ કરે છે. આ પાઠ અહીં યાવત્ પદથી સંગ્રહીત થયું છે. આ પાઠને આ જાતને અર્થ ઔપપાતિક સૂત્રના પદમા સૂત્રમાં કરવામાં આવે છે. ધર્મકથા અને તેને પ્રકાર આ સર્વ વિષય ઓયપાતિક સૂત્રથી અહીં ગ્રહણ કરે જોઈએ. આ પ્રમાણે કષિ વગેરેની પરિષદા શ્રી મહાવીર પ્રભુ વડે કથિત ધર્મોપદેશ સાંભળીને જે દિશા તરફથી આવી હતી. તે જ દિશા તરફ પાછી જતી રહી. સૂ૦ ૩૦ || 'त एणं मुरियाले देवे' इत्यादि। सूत्राथ.---:-(त एणं) त्या२ पछी (से सूरियामे देवे) ते सूरियालव (समणस्स भगवओ तहावीरस्स अंतिए धम्म सोचा) श्रम संगवान महावीर
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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