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________________ सुबोधिना टीका सू. २३ भगवद्वन्दनार्थ सूर्याभस्य गमनव्यवस्था . दिव्यं यानविमानं विकरोति, विकृत्य यत्रैव मर्याभो देवः, तत्रैव उपागच्छति, उपागम्य सूर्याभं देवं करतलपरिगृहीतं यावत् प्रत्यर्पयति ।। सू० २३ ॥ 'तस्स दिव्बस्स. जाणविमाणस्स' इत्यादि-- टीका--पूर्वोक्तस्य दिव्यस्य. यानविमानस्य अयमेतद्रूप:-अनुपदं वक्ष्यमाणस्वरूपो वर्णावास:-वर्णनपद्धतिः, प्रज्ञाप्त, स. यानविमानवों यथानामकःवक्ष्यमाणतत्तद्वर्णसदृशवर्णयुक्तः, इत्येव स्पष्टयति-अचिरोद्गतस्य-सदा उदितस्य देखना चाहिये. (तएण से आभियोगिए देवें दिव्वं जाणविमाणं विउच्वइ) इस प्रकार से उस आभियोगिक देवने उस दिव्य यान विमान की विकुर्वणा की. (विउवित्ता जेणेव मुरियाभे देवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता मरियामं देवं करयलपरिग्गहियं जाव, पञ्चप्पिणेइ) विकुर्वणा करके फिर वह सूर्याभ देव जहां था वहां गया. वहां जाकर के उसने उस सूर्याभ देव को, दोनों हाथों की, दशं नव जिसमें जुड जावें ऐसी अंजलि बनाकर और उसे मस्तक पर रख कर जय विजय शब्दों का उच्चारण करते हुर वधाया. वधा करके फिर उसने आपकी आज्ञा के अनुसार मैंने सब काम कर दिया है ऐसी उसकी आज्ञा को पीछे लौटा दिया। टीकार्थ इसी के अनुसार है। यहां करयल परिग्गहियं ' जाव' में जो यावत् पद "आया है. उससे 'दशनखं शिरआवत, मस्तके अजलिं कृत्वा, जयेन विजयेन वर्द्ध यति, वयित्वा एताम् आज्ञाप्तिकाम् ' इन पदों का सग्रह हुआ है. इनकी व्याख्या पहिले की जा चुकी है ॥ सू० २३.॥ भाव्यु छ. जिज्ञासुम्या त्यांथी न श छ (तए ण से आभियोगिए देवे दिन जाणविमाण विउच्चइ) मा प्रमाणे ते मालियोणि वे ते हिव्य यानविमाननी विशु ४२. (विउवित्ता जेणेव मरियाभे देवे तेणेच उवागच्छह, उवाग च्छित्ता मरियाभं देवं करयलपरिग्गहिय जाव पचप्पिणेइ) वि ४ीने પછી તે સૂર્યાભદેવ જવાં હતો ત્યાં ગમે ત્યાં જઈને તેણે સૂર્યામદેવને બંને હાથની, દશ નખો જેમાં જોડવામાં આવ્યાં છે એવી અંજલિ બનાવીને અને તેને મસ્તકે મૂકીને જ વિજય શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કરતાં વધામણી - આપી. વધાવીને તેણે તેઓશ્રીની આજ્ઞા પ્રમાણે કામ સંપૂર્ણ થઈ ગયું છે તે प्रभालेंनी विनतीश मा सूत्रना Atथ २मा प्रमाणे छ. मी 'कर-. यलपरिग्गहियं जाव ' म ' यावत् ५४ छ, तेथ. दशनख शिरआवर्त' . मस्तके अंजलिं कृत्वा, जयेन विजयेन वर्दू यति, वयित्वा एताम्. आज्ञ. प्तिकाम् । म पहाना सयड ४२वामी मा०येछ. सनी व्याय पसi ४२पामा भावी ॥ २३ ॥ .. .
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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