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________________ राजप्रश्नीयसूत्र ना अयमर्थः, समर्थः तस्य खलु यानविमानस्य इनः इष्टतरका एवं यात .... वर्णेन प्रज्ञप्तः, गन्धश्च स्पर्शश्च यथा मणीनाम् । ततः खलु स आभियोगिको देवो .. अच्छी तरह से पुष्पित हुए पारिजान नाम पुष्पान का जैसा लाल व हाता है वैसा ही वर्ण इस दिव्य यानविमान का है । अब शिष्य ऐसा पूछता है (भदे एयाख्ने सिया) इन का जो वर्ण है क्या उसी वर्ग के जैसा इस यान विमान का वर्ण होता है ? इस पर गुरु उत्तर देते हैं-(णा इणट्टे समठे) यह अर्थ समर्थ नहीं है। क्यों कि यह तो उपमामात्र का . प्रदर्शन है। कारण-- (तस्म ण दिवस जाणविमाणस्त एत्तो इतराए चेक जाव वण्णेणं पणत्ते) उस दिव्य यान विमान का वर्ण उक्त : मूर्यादिक के वर्ण से भी अतिशयेन-अत्यन्त अभीप्सित (वांछित) ही है. यहां यावत् पद से ‘कान्ततरक एव, मनोज्ञतरक एवं मनोमतरक एक इन पूर्वोक्त पदों का संग्रह हुआ है. इन पदों का अर्थ १५ वें सत्र की व्याख्या में किया जा चुका है। यह पूर्वोक्त कथन दिव्य यान' विमान के वर्ण के विषय में किया गया है. अब मूत्रकार इस दिव्य यान विमान का गंध और स्पर्श केला है इस बात को प्रकट करने के लिये कहते है-(गंधो य फासो य जहा मणीणं) मणियों का जैमा गंध और स्पर्श. कहा गया है वैसा ही इसका गंध एवं स्पर्श है. मणियों के गंध और .: स्पर्श का वर्णन १५ वे और १९ वें सत्र में किया गया सो वहां से નામના પુષ્પવનને જેવો વર્ણ હોય છે, તેજ વ છે તે દિવ્ય યાનવિમાનને છે. वेशिय मा प्रभारी प्रश्न ४२ ते--(भवे एयारवे मिया) मा सनाव: વર્ણ છે તે જ વણ શું તે યાનવિમાનને પણ હોય છે ? એના ઉત્તરમાં ગુરુ - 4t मापता 3 छ. (जो हगट्टेसमट्ट) मा अर्थ समर्थ नथी भडे या तो उपमा मापा मात२ ८ वर्णवामी माव्यु छ ? (तस्प्त णं दिव्वस्स जाणविमाणस्स एत्ती इतराए चेव जाव वण्णेणं पण्णने) ते यान : विमानने ते सूर्य वगैरेना पशु ४२di vf गतिशय--अत्यंत मलासित (qilwa) छ. ही यावत् पहथी: कान्तनरक एव, मनोज्ञतरक एव, मनोमनरक एव. २० यूवात - પદેને. સંગ્રહ થયેલ છે. આ પદેને અર્થ ૧૫ મા સૂત્રની વ્યાખ્યામાં સ્પષ્ટ કરવામાં આજે છે. આ પૂર્વોકત કથન દિવ્ય યાનવિમાનના વર્ણના વિષયમાં કરવામાં આવ્યું છે. હવે સૂત્રકાર તે દિવ્ય યાનવિમાનનો ગંધ અને તેને સ્પર્શકે છે. આ વાતને २५ ४२di ४३ छ--(गंधों य फासो य जहा मगीण) मारियाना को અને સ્પર્શ વર્ણવવામાં આવ્યું છે તે જ યા વિમાનને ધ અને તેને સ્પર્શ છે. મંણિઓના ગધ અને સ્પર્શનું વર્ણન ૧૮ માં અને ૧૯ માં સૂત્રમાં કરવામાં
SR No.009342
Book TitleRajprashniya Sutra Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1965
Total Pages721
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_rajprashniya
File Size55 MB
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