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________________ २६६ प्रापना वक्ष्यमाणाप्टार्निश स्थपनारीत्या चतुर्यु आकाशप्रदेशेषु अवगाहते तत्र द्वौ द्वौ परमाणू द्वयों राकाशप्रदेशयोर्वते ते, एकः परमाणुस्तयोरेव समश्रेणिस्थे तृतीये आकाशप्रदेशे वर्तते, एकच विश्रेणिस्थे आकाशप्रदेशे तदा आधप्रदेशावगाढी द्वौ परमाणू चरमः, तृतीयप्रदेशावगादव चरम इति द्वौ चरमौ, द्वितीयप्रदेशावगाही हो परमाणु मध्यवर्तित्वात् अचरमः, विश्रेणि स्थस्तु एकः परमाणुरवक्तव्यः इति तत्समुदायात्मक पट्प्रदेशिक स्कन्धोऽपि 'चरमौ चाचरंमश्चावक्तव्यश्च इति-व्यपदिश्यते । 'सिय चरमाई य अचरमेय अवत्तध्वयाई य २४' पर पदेशिकः स्कन्धः स्यात्- कदाचित् चरमौ चाचरमश्च अवक्तव्यो च' इति व्यपदिश्यते तयाहि यदी पटप्रदेशिक स्कन्धो वक्ष्यमाणैकोनचत्वारिंशस्थापनारीत्या ३९ समश्रेण्या विश्रेण्या च पञ्चमैं आकाशप्रदेशेषु भवगाहते तत्र त्रिषु आकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेषु आधे प्रदेशे सार चार आकाशप्रदेशों में अवगाढ होता है, उनमें से दो-दो परमाणु दो आकाशप्रदेशों में रहते हैं, एक परमाणु उन्हीं की समणि में स्थित तीसरे आकाशप्रदेश में रहता है और एक परमाणु विश्रेणिस्थ आकाशप्रदेश में रहता है, तब प्रथम प्रदेश में अवगाढ दो परमाणु 'चरम' कहे जाते हैं, तीसरे प्रदेश अंवगाढ एक परमाणु भी 'चरम' कहलाता है, इस प्रकार दोनों चरम 'चरमौ' कहवाए, दूसरे प्रदेश में अवगाढं दो परमाणु मध्यवर्ती होने से 'अचरम' और विश्रेणिस्थ एक परमाणुं 'अवक्तव्य' कहलाता है। सबका समुदायरूप पदप्रदेशी स्कंध 'चरमो-अचरम-अवक्तव्य' कहा जाता है। - षट्प्रदेशी स्कंध कथंचित् 'चरमौ-अचरम-अवक्तव्यो' भी कहा जाता है । वह इस प्रकार-जब पद्मदेशी स्कंध आगे कही जाने वाली उनचालीसवीं स्थापना के अनुसार समणि और विश्रेणि से पांच आकाशप्रदेशों में अवगाहन करता है और उनमें से समणि में स्थित तीन आकाशप्रदेशों में से प्रथम સ્થાપનાના અનુસાર ચાર આકાશ પ્રદેશમાં અવગાઢ થાય છે, તેમાંથી બે-બે પરમાણુ બે આકાશ પ્રદેશમાં રહે છે, એક પરમાણુ તેઓની સમશ્રેણીમાં સ્થિત ત્રીજા આકાશ પ્રદેશમાં રહે છે અને એક પરમાણુ વિશ્રેણીસ્થ આકાશ પ્રદેશમાં રહે છે. ત્યારે પ્રથમ પ્રદેશમાં અવगार मे ५२मा 'चरम' उपाय छ, त्रीत प्रदेशमा २५ मे ५२मा 'चरम' उपाय छे से प्रारे पन्ने 'चरम-चरमौ, वाय, भात प्रदेशमi Aq18 मे५२भार भध्यक्ती वाथी अचरम अने विश्रेणिस्थ ४ ५२भा 'अवक्तव्य ४९वाय छे. मधान। सहाय ३५ षटूप्रशा. २४.५ "चरमौ-अचरम-अवक्तव्य" ४डेवाय . .'पहेशी २४.३ ४थयित् 'चरमौ-अचरम-अवक्तव्यौ" ५५ उपाय छे. ते मा हारे ત્યારે ષણ્વદેશી સ્કન્ય આગળ કહેવાનારી ઓગણ ચાલીસમી સ્થાપનાના અનુસાર સંમશ્રેણી અને વિશ્રેણીથી પાંચ આકાશ પ્રદેશોમાં અવગાહન કરે છે અને તેમાંથી સમશ્રેણીમાં થિત ત્રણ આકાશ પ્રદેશમાંથી પ્રથમ પ્રદેશમાં એક પરમાણુ, બીજા પ્રદેશમાં એક પર
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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