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________________ प्रमेयबोधिनी टीका पद १० सू० ५ द्विप्रदेशादिस्कन्धस्य चरमाचरमत्वनिरूपणम् .. १६३ एकः परमाणुः द्वितीये प्रदेशे एकः परमाणुः, तृतीये प्रदेशे द्वौ परमाण, द्वयोर्विश्रेणिस्थयो. रेकैकः परमाणुर्वते ते तदा आद्यन्त प्रदेशावगाढी चरमो मध्यप्रदेशावगाढोऽचरमः, विश्रेणिस्थ प्रदेशद्वयावगाढौ द्वौ परमाणू अवक्तव्यौ इति तत्समुदायात्मक षट्प्रदेशिक स्कन्धोऽपि 'चरमौ चाचरमश्चावक्तव्यौच' इति व्यपदिश्यते, 'सिय चरमाइं च अचरमाइं य अवत्तव्वए य.२५' पट प्रदेशिक स्कन्धः स्यात् कदाचित् 'चरमौ चाचरमौ च अवक्तव्यश्च' इति व्यपदिश्यते तयाहि-यदा स स्कन्धः पञ्चसु प्रदेशेषु वक्ष्यमाण चत्वारिंश स्थापनारीत्या ४० समश्रेण्या चावगाहते तत्र चतुर्वाकाशप्रदेशेषु समश्रेण्या व्यवस्थितेषु आद्यप्रदेशत्रये एकैकः परमाणुः, चतुर्थे द्वौ परमाणू पञ्च मे विश्रेणिस्थे एकः परमाणुस्तदा आघन्तप्रदेशवर्तिनौ द्वौ परमाणू चरमौं, मध्यप्रदेशवर्तिनौ द्वौ अचरमौ, विश्रेणिस्थ एकः परमाणुरवक्तव्य इति तत्समुदायाप्रदेश में एक परमाणु, दूसरे प्रदेश में एक परमाणु, तीसरे प्रदेश में दो परमाणु और विश्रेणिस्थित प्रदेशों में एक-एक परमाणु रहता है, तब आदि और अन्त के प्रदेशों में अवगाढ परमाणु 'चरमो' मध्य के प्रदेश में अवगाढ 'अचरम' और विश्रेणि में स्थित दो प्रदेशों में अवगाढ परमाणु 'अवक्तव्यो' कहलाते हैं। इन सबका पिण्ड षट्पदेशी स्कंध भी 'चरमो-अचरम-अवक्तव्यो' कहा जाता है। षटप्रदेशी स्कंध कथंचित् 'चरमो-अचरमो-अवक्तव्य' भी कहा जाता है, क्योंकि जब वह आगे कही जाने वाली चालीसवीं स्थापना के अनुसार पांच प्रदेशों में अवगाढ होता है और उनमें से समणि में स्थित चार आकाशप्रदेशों में से पहले के तीन प्रदेशों में एक-एक परमाणु होता है, चौथे प्रदेश में दो परमाणु होते हैं और विश्रेणि में स्थित पांचवें प्रदेश में एक परमाणु होता है, तव आदि और अन्त के प्रदेशों में रहे हुए दो परमाणु 'चरमौ' कहलाने मध्य के प्रदेशों में स्थित दो परमाणु 'अचरमो' कहलाते हैं और विश्रेणिस्थित एक परमाणु 'अवक्तव्य' कहलाता है। इस प्रकार सब का समुदाय वह षट्प्रदेशी स्कंध 'चरमौ-अचरमो-अवक्तव्य' कहा जाता है। મારા ત્રીજા પ્રદેશમાં બે પરમાણુ અને વિશ્રેણે સ્થિત પ્રદેશમાં એક-એક પરમાણ રહે छ, त्यारे मा भने मन्तन प्रदेशमा अqाढ ५२मार 'चरमौ,' मध्यन शमा मा 'अचरम' भने विश्रेeflvi स्थित में प्रदेशमi Aqld ५२भा 'अवक्तव्यौ ईपाय छ. ये धानपि पटूप्रदेशी ४५ ५ 'चरमौ-अचरम-अवक्तव्यौ' उपाय है. षट्रप्रदेशी २४न्ध स्थायित् 'चरमौ-अचरमौ-अवक्तव्य' ५४ ४ही. २४य छ, भो જ્યારે તે આગળ કહેવાનારી ચાલીસમી સ્થાપનાના અનુસાર પાંચ પ્રદેશોમાં અવગાઢ થાય છે અને તેમનામાંથી સમશ્રેણીમાં સ્થિત ચાર આકાશ પ્રદેશમાંથી પહેલાના ત્રણ પ્રદેશમાં એક-એક પરમાણુ હોય છે. ચોથા પ્રદેશમાં બે પરમાણુ હોય છે અને વિશ્રેણીમાં સ્થિત પાંચમા પ્રદેશમાં એક પરમાણુ હોય છે, ત્યારે આદિ અને અન્તના પ્રદેશમાં રહેલા બે પરમાણ , 'चरमौ' ४३वाय छ, मध्यना प्रदेशमा स्थित मे ५२भा 'अवक्तव्य' उपाय छ, में
SR No.009340
Book TitlePragnapanasutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1977
Total Pages881
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_pragyapana
File Size64 MB
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