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________________ ६५० जीवाभगमसूत्रे बलाहकाः संस्विधन्ते-संमूर्च्छन्ति वृष्टिं वर्षन्ति तथा खलु बाह्यसमुद्रेऽपि किम् उदारा मेघा वृष्टि कारिणो भवन्ति इति प्रश्नः ? भगवानाह-'णो इणहे सम' नायमर्थः समर्थः न तथाऽन्यत्र समुद्रेषु वर्षन्ति । 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चई' तत्-तथा न भवन्ति इति केन कारणेन एवमुच्यते भदन्त ! यत्-'बाहिरगाणं समुद्दा पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलट्टमाणा वोसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिटंति' वाह्याः समुद्राः खलु पूर्णाः पूर्णप्रमाणाः वोसट्टमानाः वोलट्टमानाः समभरघटतया तिष्ठन्ति इति प्रश्ने भगवानाह-'गोयमा ! वाहिरएसु णं समुद्देसु वहवे उदगजोणिया जीवा और संमुच्छंति, वांसं वासंति' हे भदन्त ! जिस प्रकार से लवणसमुद्र में अनेक उदार बलाहक संमूर्च्छना के योग्य होते हैं, संमूर्छन जन्म वाले होते हैं और वहां बरसते हैं 'तहा णं बाहिरएसु वि समुद्देसु बहवे ओराला बलाहका संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति' उसी प्रकार से क्या बाहर के समुद्रों में अनेक उदार मेघ समूर्च्छन के अभिमुख होते हैं संमूर्च्छन जन्म वाले होते हैं और क्या वे यहां वरसते हैं ? उत्तर में प्रभु कहते हैं-हे गौतम । 'णो इणढे सम?' यह अर्थ समर्थ नहीं है 'से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ बाहिरगा णं समुद्दा पुण्णा पुण्ण. प्पमाणा बोलमाणा वोसहमाणा समभरघडताए चिट्ठति' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि बाहर के समुद्र-लवणसमुद्र के सिवाय अन्य समुद्र-जल से भरे हुए हैं जितना जल उनमें भरा रहना चाहिये उतना जल पूर्णरूप से उनमें भरा रहता है जैसा कि जल से परिपूर्ण भरा हुआ घट होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैंतहाणं बाहिरएसु वि समुद्देसु बहवे ओरालो बलाहका संसयंति संमुच्छंति वास વસંતિ હે ભગવન્ ! જે પ્રમાણે લવણુ સમુદ્રમાં અનેક મેઘે સંયુચ્છનને योग्य डाय छे. सभूछन सभामा डाय छ, भने त्यो परसे छे. तहाणं वाहिरण्सु वि समुहेसु वहवे ओराला बलाहका ससेयति संमुच्छंति वास वासति' એજ પ્રમાણે બહારના સમુદ્રોમાં અનેક ઉદાર મેઘ સંમૂનના સમીપતિ હોય છે ? સંમૂડ્ઝન જન્મવાળા હોય છે ? અને તેઓ ત્યાં વરસે છે શું? मा प्रश्न उत्तरमा प्रभुश्री ४ छ 3-3 गौतम ! 'णो इणठे समठे' । मथ मशम२ नथी. 'से केणठेणं भंते । एवं बुच्चइ बाहिरगाणं समुहा पुण्णा पुण्णप्पमाणा चोलट्टमाणा योसट्टमाणा समभरघडत्ताए चिटुंति' हे सगवन् ! मा५ मे શા કારણથી કહે છે કે બહારના સમુદ્રો પાણીથી ભરેલા છે. જેટલું પાણી તેમાં ભરેલું રહેવું જોઈએ એટલું પાણી પૂર્ણ રીતે તેઓમાં ભરેલું રહે છે. જેમકે પાણીથી પૂરેપુરો ભરેલ ઘડો હોય છે, આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુશ્રી -
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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