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________________ . जीवामिगमसूत्र ननु लवणसमुद्रे पोडशयोजनसहस्रप्रमाणा भवति शिखा ततः कथं तत्र चन्द्र सूर्याणां चारं चरतां न भवति गतिव्याघातः इति चेदत्रोच्यते-इह खलु लवणसमुद्रवर्जितेपु शेपेषु द्वीपसमुद्रेषु यानि ज्योतिप्कविमानानि तानि सर्वाण्यपि सामान्यरूपस्फटिकमयानि यानि पुनलवणसमुद्रे ज्योतिष्कविमानानि तानि तथा जगत् स्वाभाव्यात् उदकस्फाटनस्वभावत्वात् स्फटिकमयानि तदुक्तं सूर्यप्रज्ञप्तिनियुक्तौ 'जोइसिय विमाणाई सव्वाई हवंति फलिहमयाई। दगफालियामया पुण लवणे जे जोइसविमाणा'-ज्योतिष्कविमानानि सर्वाणि भवन्ति स्फटिकमयानि उदकस्फाटिकामयानि पुनर्लवणे यानि ज्योतिष्कविमानानि (इति छाया) पारसुत्तरं नक्वत्तसयं जोगं जोएंसु वा-३ द्वादशोत्तरं नक्षत्रशतं वाकी की और सव व्यवस्था यहां पर जम्बूद्वीप के जैसी ही है। शंका-लवणसमुद्र में १६ हजार योजन प्रमाण शिखा है तो इसशिखा में गमन करने वाले चन्द्र और सूर्यों का व्याघात जल से क्यों नहीं होता है ? । उत्तर-लवणसमुद्र को छोडकर शेप बीप समुद्रों में जो ज्योतिष्क विमान हैं वे सब सामान्यरूप स्फटिक मय हैं तथा लवणसमुद्र में जो ज्योतिष्क विमान हैं वे सब जगत के स्वभावानुसार उदकपानी को-फाडदेने का स्वभाव वाले स्फटिकमय हैं यही बात सूर्य प्रज्ञप्ति की नियुक्ति में इस प्रकार से कही गई है-'जोइसिय विमाणाई सव्वाई हवंति फालिहमयाई। दग फालिहामथा पुण लवणे जे जोइसिय विमाणा' इस कारण लवणसमुद्र में उदक के भीतर चलने वाले उन चन्द्र सूर्यों का व्याघात नहीं होता है । 'चारसुत्तरं नक्खत्तसयं બીજું સઘળું કથન અહીયાં જંબુદ્વીપના કથન પ્રમાણે છે. . શંકા–લવણસમુદ્રમાં ૧૬ સેળ હજાર જનપ્રમાણ શિખા છે, એ શિખામાં ગમન કરવાવાળા ચંદ્ર અને સૂર્યને વ્યાઘાત જલથી કેમ થતું નથી ? - ઉત્તર-લવણસમુદ્રને છેડીને બાકીના દ્વીપસમુદ્રમાં જે તિષ્ક વિમાને છે, એ બધા સામાન્યરૂપે સ્ફટિકમય છે, તથા લવણસમુદ્રમાં જે તિષ્ક વિમાન છે તે બધા જગતના સ્વભાવ પ્રમાણે ઉદક–પાણીને ફાડી નાખવાના સ્વભાવવાળા સ્ફટિકમય છે. એજ વાત સૂર્યપ્રજ્ઞપ્તિની નિર્યુક્તિમાં આ રીતે वाभा मापी छ-'जोइसियविमाणाई सब्वाइं हवंति फालिहमयाई, दगफालिहा मया पुण लवणे जे जोइसिया विमाणा' २मा पारथी समुद्रमा पानी म२ यासापाये ये सूर्याना व्याधात थता नथी. 'बारसुत्तरं नक्खत्त संयं जोगं जोएंसु वा' सवसमुद्रमा ११२ से. मा२ नक्षत्राय यदविगेरेनी
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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