SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 411
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमेयधोतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.७३ विजयादिद्वारनिरूपणम् ३९१ प्रतीचीनायता:-पूर्वतः पश्चिमायामायता-दीर्घाः 'उदीण दाहिणविच्छिण्णा'उदीचीन दक्षिण विस्तीर्णा उत्तरतो दक्षिणस्यां विस्तीर्णाः 'अद्धचंदसंठाण संठिया' अष्टमी चन्द्रवत् अर्धगोलाकाराः । 'एगारस जोयणसहस्साई' एकादशयोजन सहस्राणि, 'अट्ठजोयणसते'-अष्टौ योजनशतानि, 'वायाले' द्विचत्वारिंशदधिकानि, 'दोण्णिय' द्वौ च, 'एक्कोणवीसति भागे जोयणस्स' एकोनविंशतिभागी योजनस्य, 'विक्खंभेणं' विष्कम्भेण-दक्षिणोत्तरतो विस्तारेण, तथाहि-महाविदेहे मेरोः उत्तरकुरवः तदुत्तरं दक्षिणतो दक्षिणकुरवः ततो यो महाविदेहक्षेत्रस्यविष्कम्भः परिणाहः तस्मात् मन्दरपर्वतविष्कम्भशोधिनं यदवशिष्यते तस्याधयावत्परिमाणमेतावत् प्रत्येकं दक्षिणकुरुणा मुत्तरकुरुणाञ्च विष्कम्भः। उक्तञ्च'वइदेहाविक्खंभा मंदर विक्खंभसोहियद्धंजं । कुरुविक्खंभ जाणमु'-वैदेह विष्कम्भा मन्दरविष्कम्भशोधिताधं यत् कुरुविष्कम्भं जानीहि-इति (छाया) स च विष्कम्भो लम्बा है 'उदीणदाहिणविच्छिणा' और उत्तर दक्षिण दिशा तक फैला हुआ है 'अद्धचंदसंठाणसंठिया' इसका संस्थान अष्टमी के चन्द्रमा के जैसा गोल है 'एगारस जोयणसहस्साई अट्ठजोयण सतेवायाले दोणि एक्कोणवीसति भागे जोयणस्स विक्खंभेणं' इसका विस्तार ११८४१२ योजन का है यह विस्तार उत्तर दक्षिण में है यह इस प्रकार से फलित होता है-महाविदेह क्षेत्र में उत्तर की ओर उत्तरकुरु नामके क्षेत्र हैं महाविदेह क्षेत्र का जो विस्तार है उसमें से सुमेरुपर्वत के विस्तार को कम कर देने से जीवों का विस्तार वचता है उसे आधा करने पर जो प्रमाण आता है वह दक्षिणकुरु और उत्तरकुरु का विस्तार होता है। कहा भी है 'वइदेहा विक्खंभा मंदरविक्खंभ सोहियद्धंतं, कुरुविक्खंभं जाणसु' इसका तात्पर्य ऐसा है छे, 'पाडीणपडीणायता' से पूथी पश्चिम सुधा सांभु छ. 'उदीण दाहिणविच्छिण्णा' उत्तरथी दक्षिण हि सुधी साये छ. 'अद्धचंदसंठाणसंठिया' तनु संस्थान मना रे गा छे. 'एगारस जोयण सहस्साई अटु जोयणसते वायाले दोण्णि एक्कोण वीसति भागे जोयणस्स विक्खंभेणं' तना વિસ્તાર ૧૧૮૪૨૯ અગીયાર હજાર આઠસો બેંતાલીસ બે ઓગણીસ એજન ને છે. આ વિસ્તાર ઉત્તર દક્ષિણ બાજુએ છે. તે આ રીતે ફલિત થાય છે. મહાવિદેહ ક્ષેત્રમાં જે વિસ્તાર છે, તેમાંથી સુમેરૂ પર્વતના વિસ્તારને ઓછો કરવાથી બાકીનો જે વિસ્તાર બચે છે, તેને અર્ધો કરવાથી જે પ્રમાણે આવે छ । दक्षि३ मन उत्त२४३न। विस्तार छे. ४ह्यु ५५ छ -'वइदेहा विक्खंभा मंदर विक्खंभसोहियद्धं तं कुरु विक्खभं जाणसु' मानु तापिय मेछ
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy