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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.६६ विजयदेवाभिषेकवर्णनम् 'अप्पेगइया देवा अप्फोडति' अप्येकका देवा आस्फोटयन्ति विलक्षणशब्दं कुर्वन्ति, 'अप्पेगइया देवा वग्गति' अप्येकका देवा वल्गन्ति हस्तिनाद नदन्ति, 'अप्पेगइयादेवा- तिति-छिदंति' अप्येकका देवाः तिप्यन्ति-छिन्दन्ति, 'अप्पेगइया देवाः अप्येकका देवाः 'अप्फोडंति वग्गति तिति छिति' आस्फोटयन्ति-बल्गतितिप्यन्ति-छिन्दन्ति-आस्फोटादीनि चत्वारि कुर्वन्तीत्यर्थः । 'अप्पेगइया देवा' अप्येककाः केचन देवाः 'हय हेसियं करेंति' हयाना हेपा शब्दं कुर्वन्ति, 'हत्थिगुलगुलाइयं करेंति' हस्तिवत् गुडगुडइत्याकारकं शब्दं कुर्वन्ति, 'अप्पेगइया देवा 'रहघणघणाइयं करेंति' अप्येकका देवा रथस्य संचलने यादृशोऽव्यक्तः शब्दस्तबनालिया, मुंह से बाजों के जैसी ध्वनि भी की ताण्डव नृत्य भी किया और लास्यरूप नृत्य भी किया 'अप्पेगड्या देवा अपकोडेंति' कितनेकदेवों ने उस समय विलक्षण प्रकार का शब्दोच्चारण किया 'अप्पेगड्या देवा वग्गंति' कितनेक देवों ने उस समय हस्तिनाद चिंघाडनो के जैसी ध्वनि किया 'अप्पेगइया देवा तिति छिदंति' कितनेक देवों ने उस समय त्रिपदिका छेदन किया 'अप्पेगइया देवा अष्फोडेंति, वग्गति, तिति छिदेति कितनेक देवों ने उस समय विलक्षण प्रकारका शब्दोंच्चारण भी किया हाथी के जैसी आवाज भी किया और त्रिपदिका छेदन भी किया 'अप्पेगइया देवा हयहेसितं करेंति अप्पेगइया देवा हत्थिगुलगुलाइयं करें ति' किननेक देवों ने उस समय घोडे के हिन हिनाने के शब्दों का उच्चारणकिया, कितनेकदेवों ने उस समय हस्ती की तरह गुड गुड शब्द का उच्चारण किया 'अप्पेगइया देवा रहघणघणाइयं करेंति' कितनेक देवों ने उस समय रथ के चलने पर જાડા બનાવ્યા. મેથી વાજાઓના જેવો અવાજ પણ કર્યો, તાંડવ નૃત્ય પણ यु, मन साय नामनु नृत्य ५ यु . 'अपेगइया देवा अाफोडे ति' मा हेवेत्ये गे मत विलक्षण प्रसार व्यार यु. 'अपेगइया देवा वगंति' टेटसis हेवाये ये समरे तिन (टीन वानी ४२१. 'अपेगइया देवा तिति छिति' मा देवाय थे सभये त्रिपही छैन यु. अप्पे गइया देवा अप्फोडे ति, वगंति तिति छिदेति' सा४ हेवाये ये सभये વિલક્ષણ પ્રકારને શબ્દચ્ચારણ પણ કર્યો હાથીના જે અવાજ પણ કર્યો मन पिहानु छेदन ५ यु 'अयेगइया देवा हयदेसिय करे ति अप्पेगइया देवा हन्थिगुलगुलाइयं करेंति' सावाये ये समय घाना रेवा उडाणटपणा શબ્દોનું ઉચ્ચારણ કર્યું કેટલાક દેએ એ વખતે હાથીને જેવા ગડગડાટવાળા नु न्या२५५ यु 'अप्पेगइया देवा रहघणवणाइयं करे ति' साप हेवाये जी० ४१
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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