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________________ प्रमेयद्योतिका टीका प्र. ३ उ. ३ सू. ६६ विजयदेवाभिषेकवर्णनम् ३१९ वीणा विपञ्ची प्रभृतिः, घनं - कंसिकादिः, शुषिरं काहलादिः एतान् वाद्यविशेपान वादयन्ति - इति । 'अप्पेगइया देवा चउव्विहं गेयं गायंति' अपि केचन देवाश्चतुर्विधं गेयं गानं गायन्ति, गेय चातुर्विध्यं दर्शयति- 'त' जहे' त्यादि, 'त' जहा' तद्यथा 'उक्खित्तयं' उत्क्षिप्तं प्रथमतः समारभमाणम्, 'पवत्तयं' प्रवृत्तम्, उत्क्षेपावस्थातो विक्रान्तं मनाग्भरेण प्रवर्त्तमानम् 'मंदाय' मध्यभागे मूच्र्छनादिगुण युक्ततया - मन्दं मन्दं घोलनाद्यात्मकम्, 'रोश्यावसाणं' रोचितावसानम् रोचितं यथोचित - लक्षणोपेततया भावितं सत्यापितम् अवसानं यस्य तत् । 'अप्पेगइया देवा' अप्पेaar देवा: 'उन्विहं अभिणयं अभिणयंति' चतुष्प्रकारकमभिनयम्-अभिलक्षीरूप जो बाजे हैं वे तत कहलाते हैं । वीणा विपश्वी आदि रूप जो बाजें हैं a fear है कासिकादि रूप जो बाजे हैं वे घनरूप हैं और काहल आदि रूप जो बाजे हैं वे झुसिर है 'अप्पेगझ्या देवा चउन्विहं गेयं गायंति' कितनेक देवोंने उस समय चार प्रकार के गाने को गाया 'तं जहा ' वह चार प्रकार का गाना इस प्रकार से हैं 'उक्खिन्तं ' १ उत्क्षिप्त - जो गाना सब से पहिले प्रारम्भ किया जाता हैं उठाया जाता है वह उत्क्षिप्त है । 'पवतयं' प्रवृत्त - गाने को प्रारम्भ करने के बाद जो उसे कुछ गले पर भार देकर गाया जाता हैं वह प्रवृत्त हैं २ 'मंदार्य' बीच में जो गान मूर्च्छना आदि गुणों से युक्त करके मन्द स्वर से गाया जाता है वह मंद गाना है । 'रोइयावसाणं' और गाने की विधि के अनुसार जो अन्त में समाप्त किया जाता है । वह रोचितावसान गाना है 'अप्पेगइया देवा चव्वहं अभिणयं उचदसेंति' कितनेक देवोंने उस समय વિતત ઘન અને ઝુસિર તેમાં મૃદંગ અને પટહ–ઢાળ વિગેરે જે વાજીંત્ર છે, તત છે. વીણા વિપ ચીરૂપ જે વાજીંત્રે છે તે વિતત છે. કાસિકાદિ રૂપ જે વાજા छे ते धन३५ छे. सने अस विगेरे नेपाली छे ते सुषिर छे. 'अप्पेगइया देवा चउव्विहं गेयं गायति' डेंटला देवा ते वमते यार प्रहारना जायनो गाया. 'तं जहा' मे यार प्रहारना गायन या प्रमाणे छे. 'उक्खित्त' उक्षिप्त જે ગાયન બધાની પહેલા પ્રારંભ કરવામાં આવે અર્થાત્ ઉઠાવવામાં આવે તે उत्क्षिप्त नाभनु गान छे. १, 'पवत्तयं' प्रवृत्त - गायननो माल अर्या च्छी तेने ક ંઈક ગળા પર ભાર દઇને ગાવામાં આવે તે પ્રવૃત્ત નામનું ગાન છે. ૨, 'मंदार्य' वथमां ? गायन भूर्च्छित विगेरे गुणोथी युक्त श्ररीने भद्द स्वरथी गावामां आवे ते भहगान हवाय छे. 3, 'रोइयावसाणं' गायननी विधि પ્રમાણે જે અંતે સમાપ્ત કરવામાં આવે તે રાહિતાવસાન નામનું ગાયન કહેવાય छे, 'अप्पेगइया देवा चउव्विहं अभिणयं उवदंसेति' डेंटला हेवा ते वयते
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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