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________________ २८४ जीगभिगमसूत्रे गम्य-रायबरेय लकाय सजगंधेय सचमल्लेय सव्योसहि सिद्धत्थएय गिण्हंति'-सर्व दरांश्च सर्व पुप्पागि र सर्वगन्धाश्च सर्वमाल्यानि च सौंपधी सिद्धार्थाश्च गृहमन्ति, हिमबहादितः सर्व वरान् शिभिन्नजाति सर्व पुष्पाणि च' सर्वगन्धान सर्वमाल्यानि च सर्वोपधीः सिद्धार्थकान् सर्पपांश्च गृह्णन्ति, इत्यर्थः 'सव्वोसहि सिद्धत्थए गेण्हित्ता'-सवौंपधि सिद्धार्थान्संगृल्य, 'जेणेव पउमदह पुंडरीयदहा तेणेव उवागच्छति'-यत्रैव पन्नहूद पुण्डरीकहूदाः तत्रयोपागच्छन्ति, 'तेणेव उवागच्छित्ता' तत्रैव पाहदादिपूपागत्य, 'दहोदगं गेण्डंति'-इदोदक गृहणन्ति 'दहोदगं गेण्हित्ता' हुदोदकं गृहीत्वा, 'जाई तत्थ उप्पलाईजाव हिमवंत सिहरिवासघर पब्धया तेणेध उधागञ्छति' मृत्तिका लेकर फिर वे जहां क्षुद्र हिमवान और शिखरी वर्षधर पर्वत थे वहां पर . आये तेणेव उवागच्छिन्ता सव्व सूबरेय सव्व फुप्फेय सव्व गंधेय लब्ध मल्लेय' वहां आकरके उन्होंने सब वस्तुओं के उत्तम समस्त पुष्पोंको समस्त सुगंधको, समस्त मालाओं को 'सव्वोसहि सिद्धस्थए य गिण्हति समस्त औषधियों को, समस्त सिद्धार्थकों को और समस्त सर्वषों को लिया सिद्धथए गेण्हित्ता' सर्व सिद्धार्थकों को लेकर 'जेणेव पउमदह पुंडरीयदहा तेणेव उवागच्छंति' फिर वे जहां पद्महूद और पुण्डरीकहद था वहां पर आये 'तेणेव उवागच्छित्ता' वहां आकर के उन्होंने 'हदोदगं गेहंति' ह्रदोदकलिया 'हृदोद्गे गेहिता' हूदोदक लेकर 'जाई तत्थ उप्पलाइं जान सयसहस्लपत्ताई' फिर वहां जितने उत्पल और शतपत्रवाले एवं सहस्रपत्रवाले कमल थे, 'ताई गेहति उन्हें लिया 'ताई गेण्हित्ता' उन्हें लेकर 'जेणेव भन्ने नारास ५२थी 'तटमट्टियं गेण्इंति' भाटी सीधी गिण्हित्ता जेणेव चुल्ल हिमवंत सिहरिवासधरपव्यया तेणेव उवागच्छति' तट पाथी माटी एनते पछी તેઓ ત્યાં આગળ હિંમવાનું અને શિખરિવર્ષધર પર્વતે હતા ત્યાં આગળ તેઓ माया 'तेणेव उनागिच्छत्ता सव्यतूबरेय सव्यपुप्फेय सव्वगंधेय सबमल्लेय' त्यां આગળ આવીને તેઓએ બધી વનસ્પતિના બધા ઉત્તમ ઉત્તમ સઘળાં પુપેને सपा सुगधित द्रव्याने सधणी भाणायाने 'सव्योसहि सिद्धत्यएय गिण्हंति' સઘળી ઔષધિ, સઘળા સિદ્ધાર્થ અને સઘળા સર્ષપને તેઓએ લીધા 'सिद्धए गेण्हित्ता' सब सिद्धार्थ ने सपने 'जेणेब पउमदह पुंडरीय दहा तेणेव વારિ તે પછી તેઓ ત્યાં પહૃહદ અને પુંડરીક હદ હતા ત્યા આગળ म०41. 'तणेय नागछित्तो त्या माबीन तेगास 'हदोदगं गेहंत' हो सीधु 'हदोटो गेण्हित्ता' saas सछन 'जाई तत्य उम्पलाई जाव सपसहस्स पत्ताईते પછી ત્યાં જેટલા ઉલે અને શત પત્રાવાળા અને સહસ્ત્ર પત્રોવાળા કમળો
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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