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________________ ૨૮ जीवामिगमसूत्रे वाहल्लेणं' - अर्धयोजनं धनुः सहस्रप्रमाणं वाल्येन 'सव्त्रमणिमई जाव अच्छा पडिरूवा' - सर्वरत्नमयी यावद् अच्छा: श्लक्ष्णा घृष्टा मृष्टा निर्मला नीरजस्का निष्का निष्कण्टकच्छायाः सप्रभाः सोद्योताः प्रासादीया दर्शनीया अभिरूपाः प्रतिरूपाः 'ती से णं मणिपेढियाए उपि' - तस्याः खलु मणिपीठिकायाः उपरितनभागे, 'एग महं खुइइए महिंदज्झए पन्नत्त' - एकः क्षुल्लको लघुर्महेन्द्रध्वजः प्रज्ञप्तः कथितः, स चमरेन्द्रध्वजः - 'अदहमा जोयणाई उ उच्चतेणं' - अर्धाष्टमानिसार्थसप्तयोजनानि - ऊर्ध्वमुच्चैस्त्वेन, 'अद्धको उच्चे देणं' धनुःसहस्रमानमितमुनाऽधोभागास्थितमानेन, 'अद्वकोसं विक्खभेणं' विष्कम्भेण विस्तारदृष्टयाsपि तावदेवाऽक्रोशम्, 'वेरुलियामयवट्टलट्ठसंठिए' - वैर्यमय वृत्तलप्ट संस्थितः सुश्लिष्ट घृष्ट मृष्ट सुप्रतिष्ठितोऽनेकवरपञ्चवर्ण कुडभी सहस्रपरिमण्डिताऽभि क्खंभेणं' लम्बाई चौडाई में एकयोजनकी है और 'अद्धजोयणं वाहलेणं' मोटाई में आयोजन की है 'सञ्चमणिमई जाव अच्छा पडिरूचा' यह मणिपीठिका पूर्णरूप से रत्ननिर्मित हैं यावत् आकाश और स्फटिकमणि के जैसी निर्मल है । एवं यावत् प्रतिरूप है यहां यावत् शब्द से 'लक्ष्णा' आदि पदों का ग्रहण हुआ है । 'तीसेणं मणिपीढि - याए उपि' इस मणिपीठिका के ऊपर 'एगे खुड्डिए महिंदज्झए पनते' एक छोटी सी महेन्द्रध्वजा और है 'अट्टमाई जोयणाई उई उच्चत्तेर्ण' यह महेन्द्रध्वज साढे सात योजन का ऊंचा है । 'अद्धकोसं उब्वेणं' और इसका उद्वेध आधेकोस का है । अर्थात् नीचे जमीन में इसका प्रमाण १ हजार धनुष का है । 'अद्वकोसं विक्खं मेणं' इसका विष्कंभ आधेकोश का है । 'वेरुलियामयवट्ठलट्ठ संठिए' यह वज्ररत्न का बना हुआ है गोल आकार का है चिकना है यहां इसके वर्णन में, सुश्लिष्ट मविक्खंभेणं' सौंणार्ध होणाभां मे योजननी छे भने 'अद्धजोयणं बाहल्लेणं' भोटााभां अर्धा येोन्नननी है. 'सव्वमणिगई जाव अच्छा पडिरुवा' मा भणिपीडि સપૂર્ણ રીતે રત્નથી અનાવેલ છે. અને આકાશ અને સ્ફટિક મણિના જેવી निर्माण छे. तथा यावत्प्रति३य छे. अहींयां यावत्शब्द थी 'श्लक्ष्णा' विगेरे यही ग्रहणु उराया छे. 'तीसे णं मणिपेढियाए उपिं मे भणिपीहिानी ५२ 'एगेखुड्डिए माहिंदज्झए पन्नत्ते' ये मील नानी धन्न छे. 'अट्टमाई जोयणाई उडूढं उच्चत्तेर्ण भा भाहेन्द्र धन जी साडा सात योन्जननी अंथी छे. 'अद्धकोसं उत्र्वेहेणं' भने तेना द्वेष अर्धा असतो हे अर्थात् नीचे भीनमां- तेनु प्रभाणु १ मेड डेन्नर धनुषनु छे. 'अद्धकोसं विक्खंभेणं तेनेो विष्ल अर्धा अपना छ, 'वेरुलियामयवट्टलसाठए' मे वरत्ननो जनेस छे, गोण आहारा
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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