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________________ प्रमैयद्योतिका टीका प्र.३ उ.३ सू.६२ तत्रस्थितमणिपीठिकायाः वर्णनम् २२७ परिक्षौमादि विस्तीर्ण] यस्य तत्तथा । 'सुविरइयरयत्ताणे'-सुविरचितरजस्त्राणम्, 'रत्र्तमुयसंवुडे' रक्तांशुकसंवृतम्, अतएव-'सुरम्में -सुरम्यम्, 'आइणगरुतबूरणवणीततलफासमउए'-आदर्शकरुतबूरनवनीततूलम्, मृदुस्पर्शम् एवं भूतः शय्यास्पर्शः 'पासाईए'-प्रासादिकं दर्शनीयम् अभिरूपं प्रतिरूपमिति ॥ • 'तस्स णं देवसयणिज्जस्स'-तस्य खलु देवशयनीयस्य, 'उत्तरपुरस्थि मेणं'उत्तरपूर्वस्यां दिशि-ईशानकोणे, 'एत्थ णं महई एगा मणिपेढिया पन्नत्ता' अत्र देवशयनेशानकोणे महत्येका मणिपीठिकेति विशेषः प्रज्ञप्ता-कथिता सा खलु'जोयणमेगं आयामविक्खंभेणं'-योजनमेकमायामविष्कम्भाभ्याम् 'अद्ध जोयणं पर ऊन से भरे हुए हैं ऐसे सुन्दर सूती चद्दर से यह ढका हुआ है तात्पर्य कहने का यही है कि इसके नीचे ऊनकी कम्बल विछी हई है और उसपर वेश कीमती सूती चादर विछी हुई है । 'सुविरइयरयत्ताणे' पैर पोंछने के लिये वहीं पर एक रजस्त्राण वस्त्र भी पास में रखा हुआ है 'रत्तंसुयसंवुडे' यह लालवस्त्र से ढका हुआ है। 'सुरम्मे' अतः देखने में यह बडा सुहावना जचता है । 'आइणगरतचूरणवणीतलपासमउए' मृगचर्मका और रूई का या पालाश का जैसा मृदुस्पर्श होता है। उसी प्रकार से इसका भी मृदुस्पर्श है। यह देवशय्या 'पासाइए' चित्त को आह्लादकारिणी है । दर्शनीय है अभिरूप है और प्रतिरूप है इन पदों का अर्थ पीछे लिखा जा चूका है 'तस्सणं देवसयणिजस्स' इस देवशयनीय की उत्तर पूर्व दिशा में-ईशानकोने में 'एत्थ णं महई एगा मणिपेढिया पन्नत्ता' एक बहुत बडीविशाल-मणिपीठिका है। यह मणिपीठिका 'जोयणं एगं आयामविસુંદર સૂતરની ચાદરથી તે ઢાંકેલ છે. કહેવાનું તાત્પર્ય એજ છે કે–તેની નીચેની બાજુ કાંબળ પાથરેલ છે. અને તેના પર રેશમી અને સૂતરની ચાદર पाथरेस छ. 'सुविरइयरयत्ताणे' मने ५ युवा माटे त्यां मे २०४खा पर पर रामे छे. 'रत्तंसुयसंवुडे ते सास परथी ढia छे. 'सुरम्मे' तेथी नेवाभा मेधा शालामा दाग छे. 'आइणगरुतबूरणवणीततूलपासमउए' મૃગચમને રૂને અને પાલાશને જે કેમળ સ્પર્શ હોય છે, એ જ પ્રમાણેને तेना २५ पY घणे आम छे. २॥ हेवशम्या 'पासाइए' यित्तने मासा ઉત્પન્ન કરવા વાળી છે. દર્શનીય છે. અભિરૂપ અને પ્રતિરૂપ છે. આ પદેને मथ पसा सवाभा मावी गयेद छ 'तस्स णं देवसयणिज्जस्स' से देवशयनीय नी उत्तर पूर्वमा अर्थात् शान भूमा 'एत्थ णं महई एगा मणिपेडिया पन्नत्ता' मे४ घणी वि मणिपा8। छे, मा मणिपी. 'जोयणं एगं आया
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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