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________________ १३४ । जीवाभिगमसूत्रे तोऽद्धत्रुटितत्वात् 'उप्पि तणुए' उपरिभागे तनुकः मध्यविष्कम्भादपि अर्धस्य त्रुटितखात् 'चाहिं वटे' वहिर्वृतः बाह्यभागे वृत्ताकारो गोलाकारः 'अंतो चउरंसे' अन्तर्मध्यभागे चतुरस्त्रः-चतुष्कोणाकारः 'गोपुच्छसंठाणसंठिए' गोपुच्छ. संस्थानसंस्थितः अर्वीकृत गोपुच्छसंस्थानसंस्थित इत्यर्थः, 'सबकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे' सर्वकनकमय:-सुवर्णमयः, अच्छः स्फटिकाकाशवद् अतिशुभ्रः श्लक्ष्णः घृष्टो मृष्टो नीरजस्को निर्मलो निप्पको निप्कंकण्टच्छायः सप्रमः सोद्योतः प्रासादीयो दर्शनीयोऽभिरूपः प्रतिरूप इति । 'से णं पागारे' स खलु प्राकारः, 'णाणाविह पंच वण्णेहिं कविसीसएहिं उवसोभिए' नानाविध पञ्चवर्णैः अनेक प्राकारक कृष्णनीलादिमि विशिष्टेः कपिशीर्षकरुपशोभितस्सर्वतः समलङ्कृतःनानाविधत्वं च-वर्णापेक्षया, कृष्णनीलादि वर्णतारतम्यापेक्षया वा, पञ्चवर्णत्वमेवोपपादयति, 'तं जहेत्यादि । 'तं जहा'-तद्यथा-'किण्हेहिं जाव मुकिल्लेहि तणुए' ऊपर के भाग मे पतला हो गया है । 'वाहिं बटुं' बाह्यभाग में यह वृत्ताकार-गोल आकार वाला है 'अंतो चउरंसे' मध्य में चौरस है । बहु ऊंचे उठाए हुए गोपुच्छ के संस्थानवाला है वह पूरा का पूरा सुवर्णमय है, आकाश और स्फटिकमणि के जैसा स्वच्छ है चिकना है • घिसा हुआ मठारा हुआ रज रहित निर्मल, किली प्रकार के लेप नहीं होने से निष्पंक निष्कंकर प्रभावाला, प्रकाशवान मनको प्रसन्न करने वाला देखने योग्य रूपवान जिसके समान दूसरा कोइ रूपवान न हो अतःवह प्रतिरूप है । फिर वह प्राकार 'नाणाविह पंचवण्णेहिं कविसीसएहि उवसोभिए' नानाविध पांच प्रकार के वर्गवाले कंगुरों से उपशोभित है वे पांच प्रकार के वर्ण कहते हैं 'तं जहा' वे इस प्रकार के हैं-काले नीले संखित्ते' मध्यसागमा सक्षित सथित छे. मने 'उपि तगुर' 6५२ मामा पातको थये छ. 'वाहि व?' महाना मा ते वृत्तार मार पाणी छे. 'अंतो चउरंसे' मध्यमा योरस छ. महु यु ४२वामा मावेस सायना પૂછડાના આકાર જેવા આકારવાળે એ પ્રાસાદ છે. તે સંપૂર્ણ પણે સુવર્ણમય છે. આકાશ અને સ્ફટિકમણિને જે સ્વચ્છ છે. ચિકાશવાળે છે. અર્થાત લીસે છે. ઘસવામાં આવેલ છે. અને મઠારેલ છે. રાજરહિત હોવાથી નિર્મલ છે. કેઈ પણ પ્રકારને લેપ ન હોવાથી નિષ્પક નિષ્કટક પ્રભાવાળ, પ્રકાશવાન મનને પ્રસન્ન કરવાવાળા જેવા રૂપવાન જેના સરખે બીજે કઈ રૂપવાન नसाय ते साथी ये प्रति३५ छ. तथा ते प्रा२ 'नाणाविह पंचवण्णे हिं कविसीसरहिं उबसोभिए' मने प्रश्न पाय प्रा२ना व वाणा गरामाथी शायमान छ ते पाय प्रारना वर्षमा प्रमाणे छ. 'तं जहा' वाणा
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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