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________________ १४१७ प्रमेयोतिका टीका प्र. १० सू. १४५ सर्वजीवानां त्रैविध्यनिरूपणम् त्रिविधाः सर्वजीयाः येकेऽपि संसारिणोऽसंसारिणश्च तत्र केचन - त्रस्यन्ति - भयादुद्दिजन्ति तापादि पाडिता वा छायादि देशं गच्छन्त्याश्रयन्ते ये ते त्रसाः १ स्थावराः २ तृतीयाः नोक्सा नो स्थावराः सिद्धाः - ३ प्रज्ञप्ताः । अथ कायस्थितिनेतेपामाह - 'तसस्स भंते ! कालओ केव च्चिरं होइ ? जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं - उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई साइरेगाई' सस्य खलु भदन्त ! कायस्थितिः कियच्चिरं० ? भगवानाह - गौतम ! अन्तर्मुहूर्त जघन्येन - उत्कर्षेण द्वे सागरोपमसहस्रे सातिरेके । 'थावरस्स संचिणा वणस्सइकालो' स्थावरस्य कायस्थितिर्वनस्पतिकालः स च प्रसिद्धाः । 'नो तसा नो थावरा साई अपज्जवसिया' ये च सानो स्थावरास्ते सादिका अपर्यवसिताः । अथाऽन्तरमेतेषाम् -'तसस्स अंतरं वणस्सइकालो' वनस्पतिकालं यावत् ससे भी समस्त जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं जैसे 'तसा, धावरा, नो तसा नो थावरा' स स्थावर और नो नस नो स्थावर 'तसस्स भंते ! कालओ' हे भदन्त ! स रूप से कितने काल तक रहता है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं - 'जह० अंतो० उक्को० दो सागरोवमसहसाई साइगाई' हे गौतम ! त्रस त्रसरूप से कम से कम एक अन्ततक रहता है और अधिक से अधिक सातिरेक कुछ अधिक दो हजार सागरोपम तक रहता है 'थावरस्म संचिणा वणस्सइकालो' स्थावर की कार्यस्थिति का काल वनस्पतिकाल प्रमाण है वनस्पतिकाल का प्रमाण पीछे कह दिया गया है । तथा जो 'नो तसा नो थावरा' जीव तो स नो स्थावर हैं-सिद्ध हैं - उनकी कायस्थिति का काल 'साइ अपज्जवसिया' सादि अपर्यवसित है । इनके अन्तर का कथन - 'तसस्स अंतरं वणस्सइकालो' त्रस का अारना हेवामां आवे छे. भडे- 'तसा थावरा नो तसा नो थवरा' स स्थावर, भने ने। त्रस तो स्थावर 'तसस्स णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होई' हे ભગવન્ ! ત્રસ ત્રસપણાથી કેટલા કાળ રહે છે આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ ५हे छे ! ‘जहण्णेणं अतोमुहुत्तं उक्कोसेण दो सागरोवमसहस्साई साइरेगाई' હું ગૌતમ ! ત્રસ ત્રસપણાથી ઓછામાં ઓછા એક અંતર્મુહૂત પન્ત રહે છે. અને વધારેમાં વધારે સાતિરેક-કંઇક વધારે બે હજાર સાગરાપમ પર્યન્ત रहे छे 'थावरस्स संचितॄणा वणस्सइकालो' स्थावरनी अयस्थितिनो आज वनસ્પતિકાળ પ્રમાણને છે, વનસ્પતિકાળ માણુ પહેલા કહેવામાં આવી ગયેલ छे. तथा 'नो तसा नो थावरा' ? ઞ અને ના સ્થાવર સિદ્ધ જીવ છે તેમની કાયસ્થિતિના કાળ साहि स्यर्यसित छे. नी० १७५
SR No.009337
Book TitleJivajivabhigamsutra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1974
Total Pages1588
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_jivajivabhigam
File Size117 MB
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